Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
३ / धर्म ओर सिद्धान्त : ११३
पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं एवं कोई अभव्य और भव्य मिध्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा व आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं ।
२. कोई सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यरूपसे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ पूर्व संस्कार के बलपर कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व संस्कार के बलपर संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, और कोई सासादनसम्यग्दृष्टि जीव पूर्व संस्कारवश संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा व आरम्भीपापरूप अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश अथवा सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं ।
३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि भव्य मिध्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके समान ही प्रवृत्ति किया करते हैं, परन्तु उनमें इतनी विशेषता है कि वे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति किसी भी रूप में नहीं करते हैं ।
४. चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आगेके गुणस्थानोंमें विद्यमान सभी जीव तृतीय गुणस्थानवर्ती जीवोंके समान संकल्प पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा रहित होते हैं । इस तरह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव या तो आसक्तिवश आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं अथवा आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश या सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं ।
५. पंचम गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेशनिवृत्तिपूर्वक दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पंचम गुणस्थान कदापि प्राप्त नहीं होता है । इतना अवश्य है कि कोई पंचम गुणस्थानवर्ती जीव आरम्भीपापमय अदया रूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेशनिवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं ।
६. षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्ति-पूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको षष्ठ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता ।
७. षष्ठ गुणस्थानसे आगेके गुणस्थानोंमें जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्य रूपमें नहीं करते हुए अन्तरंगरूपमें ही तब तक करता रहता है, जब तक नवम गुणस्थानमें उसको अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायोंकी क्रोध-प्रकृतियोंके सर्वथा उपशम या क्षय करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीव अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानके अन्त समय तक रहता है और पंचमगुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है। इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोधर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समय तक रहा करता है। इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समय तक रहा करता है, और षष्ठ गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानों में संज्वलन क्रोधकर्मका उदय ही रहा करता है । परन्तु संज्वलनक्रोधकर्मका उदय व अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोष कमका क्षयोपशम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थानमें इनका १५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org