Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त : ५
जायगा । आगममें बतलाया गया है कि व्यवहारकालका यह प्रवर्तन एकके बाद एक कल्पके रूपमें चल रहा है। एक कल्पकी मर्यादा बीस कोडाकोड़ी सागर वर्षोंकी है, जो कि असंख्यात वर्ष प्रमाण होती है।
प्रत्येक कल्प भी अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके रूप में अपना प्रवर्तन किया करता है। अवसर्पिणी वह है, जिसमें मानव-समाज अपनी उच्चतम स्थितिको एक-एक समयके आधारपर धीरे-धीरे समाप्त कर क्रमशः हीनतम स्थिति तक पहँचता है और उत्सपिणी वह है, जिसमें मानव-समाज अपनी हीनतम स्थितिको एक-एक समयके आधारपर ही धीरे-धीरे समाप्त कर क्रमशः उच्चतम स्थिति तक पहुँचता है। इस तरह
का प्रवर्तन सषमा-सषम (अत्यन्त सुखमय समय), सुषमा (सुखमय समय). सुषमा-दुःषमा (दुःख मिश्रित सुखमय समय). दुःषमा-सुषमा (सूख मश्रित दुःखमय समय), दुःषमा (दुःखमय समय) और दुःषमादुःषमा (अत्यन्त दुःखमय समय)-इन छह भेदोंके रूपमें तथा इसके पश्चात् उत्सर्पिणीका प्रवर्तन दुःषमादुःषमा (अत्यन्त दुःखमय समय), दुःषमा (दुःखमय समय), दुःषमा-सुषमा (सुखमिश्रित दुःखमय समय), सुषमा-दुःषमा (दुःखमिश्रित सुखमय समय), सुषमा (सुखमय समय) और सुषमा-सुषमा (अत्यन्त सुखमय समय) इन छह भेदोंके रूप में हुआ करता है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि क्रमशः एकके बाद एकके रूपमें अवसर्पिणो और उत्सर्पिणीका प्रवर्तन होते हुए अनादिसे अबतक अनन्त कल्पकाल व्यतीत हो चुके हैं तथा आगे इन बीते हुए कल्प-कालोंसे अनन्तगुणे कल्पकाल व्यतीत हो जानेपर भी काल-द्रव्य (निश्चयकाल) का अस्तित्व अनादि-निधन होनेसे कल्पकालोंका प्रवर्तन कभी समाप्त नहीं होगा।
प्रत्येक कल्पकालकी अवसर्पिणीके चतुर्थ दुःषमा-सुषमा भागमें और प्रत्येक उत्सर्पिणीके तृतीय दुःषमा-सुषमा भागमें संसारी जीवोंके लिए मोक्ष-प्राप्तिके साधनभत धर्म-तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले चौबीस महापुरुष उत्पन्न होते हैं, जिन्हें आगममें 'तोथ कर' नामसे पुकारा गया है। इस तरह अनादि-कालसे अबतक अनन्त तीर्थकरोंकी अनन्त चोबीसियाँ हो चकी है और आगे भी सतत तीर्थंकरोंकी चौबीसियोंके होनेका यही क्रम चलता जायगा।
प्रत्येक तीर्थकरने अपने समयमें अपनी दिव्यवाणी (दिव्यध्वनि) द्वारा जो धर्मतीर्थका उपदेश संसारी जीवोंको दिया था, उसे आगममें देशना नामसे पुकारा गया है और उस देशनाको तथा उस देशनाके आधारपर गणधर आदि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा ग्रथित उपदेशको ‘आगम' नामसे पुकारा गया है। इस तरह कहना चाहिए कि आगमका प्रवर्तन अनादि-कालसे चला आ रहा है और अनन्त कालतक चलता जायगा । यही स्थिति आगमाभासके प्रवर्तनकी समझना चाहिए । वर्तमान आगमकी आधारभूमि
वर्तमानकाल अवसर्पिणीका पंचम भाग दुःषमाकाल है। इससे २५१४ वर्ष पूर्व इसी अवसर्पिणीका चतुर्थ भाग दुःषमा-सुषमा काल चल रहा था। उस समय तक इस अवसर्पिणी में होनेवाले चौबीस तीर्थंकरोंमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर इस भारतभुमिपर विद्यमान थे, जिन्होंने अपनी पूर्व वीतरागता और सर्वज्ञताके आधार जगतके प्राणियोंको हितकारी उपदेश दिया था, जिसे तीर्थंकर महावीरकी देशना कहते है। यद्यपि तीर्थकर महावीरकी वाणी आज हमें उपलब्ध नहीं है, फिर भी उनकी वाणीके आधारपर उत्तरोत्तर अल्पज्ञ आप्तों द्वारा रचित आगम वर्तमानमें भी उपलब्ध है, जिसके द्वारा उनकी ( तीर्थंकर महावोरकी) देशनाकी झांकी हमें वर्तमानमें भी उपलब्ध हो रही है। इस तरह कहना चाहिए कि वर्तमान आगम यद्यपि अल्पज्ञ आप्तों द्वारा रचा गया है, परन्तु उसकी आधारभूमि तीर्थकर महावीरकी देशना ही है ।
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