Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
तरह अपने अस्तित्वका भान नहीं होता है अर्थात् 'मैं अमुक पदार्थका ज्ञान कर रहा हूँ' अथवा 'मैं अमुक कार्य कर रहा हूँ' ऐसा ज्ञान उन्हें नहीं हो पाता है, फिर भी उस समय उनकी उस ज्ञान-रूप या उस क्रिया-रूप परिणति होते रहनेके कारण उस परिणतिका अनुभवन तो उन्हें होता ही है अन्यथा चींटी आदि प्राणियोंको अग्नि आदि के समीप पहुँचने पर यदि उष्णताजन्य दुख-रूप सामान्य अनुभवन न हो तो फिर वहाँसे वे हटते क्यों हैं ? इसी प्रकार शक्कर आदि अनुकूल पदार्थोके पास पहुँचनेपर यदि मिठासजन्य सुख-रूप सामान्य अनुभवन उन्हें न हो, तो वे उन पदार्थोसे चिपटते क्यों हैं ? इससे यह बात सिद्ध होती है कि एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियोंको यथायोग्य स्वसंवेदन होता ही है । एक बात और है कि जैन-दर्शन में प्रत्येक ज्ञानको स्वपरप्रकाशक स्वीकार किया गया है, अतः एकेन्द्रिय आदि सब प्राणियों के स्वसंवेदकत्वका सद्भाव अनिवार्य रूपसे मानना पड़ता है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंका जो स्वसंवेदन होता है उसे जैन-संस्कृतिमें 'कर्मफलचेतना' नामसे पुकारा गया है; क्योंकि इन जीवोंम मनका अभाव होनेके कारण कर्ता, कर्म, क्रिया और फलका विश्लेषण करने की असामर्थ्य पायी जाती है तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके स्वसंवेदनकी 'कर्मचेतना२ नामसे पुकारा गया है; कारण कि मनका सद्भाव होनेसे इन जीवोंमें कर्ता आदिके विश्लेषण करने की सामर्थ्य विद्यमान रहती है। इन्हीं संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमेंसे ही जो जीव हित और अहितकी पहचान करके पदार्थज्ञान अथवा प्रवृत्ति करने लग जाते है उनके स्वसंवेदनको 'ज्ञानचेतना' के नामसे पुकारा जाने लगता है।
प्राणवान् शरीरोंमें होने वाला यह स्वसंवेदन भी पूर्वोक्त युक्तियोंके आधारपर शरीरका धर्म न होकर आत्माका ही धर्म सिद्ध होता है अतः जैन-संस्कृतिमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालकी तरह आत्माका भी परपदार्थज्ञातृत्व, प्रयत्नकर्तुत्व और स्वसंवेदकत्वके आधारपर स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन अस्तित्व माना गया है।
४. करणानुयोगमें आत्मतत्व
हम देखते हैं कि प्रत्येक प्राणी दुःखसे डरता है और सुखकी चाह करता है, यही कारण है कि जिन दार्शनिकोंने आत्माके अस्तित्वको नहीं माना है उन्होंने भी "महाजनो येन गतः स पन्थाः" के रूप में जगतको सुखके साधनोंपर चलनेका उपदेश दिया है । तात्पर्य यह है कि आत्माके अस्तित्वके बारे में विवाद हो सकता है, परन्तु जगतके प्रत्येक प्राणीको जो सुख और दुःखका अनुभवन होता रहता है इस अनुभवनके आधारपर अपनी सूखी और दुःखी हालतोंकी सत्ता माननेसे कौन इन्कार कर सकता है ? इसलिए ऊपर जो द्रव्यानयोगकी अपेक्षा स्वतःसिद्ध और अनादिनिधन चित्शक्तिविशिष्ट आत्मतत्त्वके अस्तित्वकी सिद्धि करने का प्रयत्न किया गया है, इतने मात्रसे ही हमारे प्रयत्नको इतिश्री नहीं हो जाती है। इसके साथ ही आखिर हमें यह भी तो सोचना है कि सुखी और दुःखी हालतें आत्माकी ही मानी जायँ या आत्माका इनसे कोई सम्बन्ध ही नहीं है ? और यदि इन हालतोंको आत्माकी हालतें मान लिया जाय तो क्या ये हालतें आत्माकी स्वतःसिद्ध हालतें हैं या किन्हीं दूसरे कारणोंसे ही आत्मामें इनकी उत्पत्ति हो रही है ? और क्या ये नष्ट भी की जा सकती हैं ?
१. पंचाध्यायी (उत्तरार्ध) २-१९५ । २. पंचाध्यायी (पूर्वाध)२-१९५। ३. वही, २-१९४, २१७ ।
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