Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त ७७
संसारकी कारणताका अभाव पाया जाता है वहीं संसारकी कारणताका सद्भाव भी पाया जाता है । अथवा यों कहिये कि जहाँ इनमें मोक्षकी कारणताका सद्भाव पाया जाता है वहीं मोक्षकी कारणताका अभाव भी पाया जाता है।"
व्यवहार या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति जीवके चौथे गुणस्थानसे सप्तमगुणस्थान तक ही संभव है, औपशमिकरूप निश्चयसम्यग्दर्शनकी स्थिति चौथेसे सातवें तक तथा उपशमश्रेणी के सातवें, आठवें, नौवें और दशवे गुणस्थानोंमें एवं उपशांतमोह नामक ११ वें गुणस्थान में संभव है तथा क्षायिकरूप निश्चयसम्यग्दर्शनकी स्थिति पीसे सातवें तक तथा उपशमश्रेणी के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानोंमें एवं ११ उपशान्तनामक गुणस्थान में भी संभव है। इसके अतिरिक्त क्षपक श्रेणीके सातवें, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानोंमें तथा क्षीणमोहनामक १२खँ गुणस्थान में एवं उसके आगे सर्वत्र नियमसे क्षायिक सम्यग्दर्शन विद्यमान रहता है। चीचे गुणस्थानसे पूर्व प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्वके रूपमें द्वितीय गुणस्थान में सासादन अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे उत्पन्न औदयिकभावके रूपमें तथा तृतीय गुणस्थान में सम्यगमिथ्यात्व (मिश्रभाव ) के रूप में सम्यग्दर्शनका सर्वथा अभाव रहा करता है अर्थात् इन गुणस्थानोंमें निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शन नहीं रहा करते हैं।
व्यवहार या क्षायोपशमिक चारित्र या यों कहिये कि सरागचारित्र नियमसे पाँचवे से लेकर दशवे गुण-स्थान तक रहा करता है, ११वे गुणस्थानमें नियमसे औपशमिकरूप निश्चयचारित्र, वीतरागचारित्र या यथास्यातचारित्र रहा करता है और १२वे गुणस्थानसे लेकर आगे १४वे गुणस्थानके अन्ततक क्षायिकरूप निश्चयचारित्र, वीतरागचारित्र या यथाख्यातचारित्र रहा करता है । आगे मोक्षमें चूँकि आत्मस्वरूप में कारणरूपता समाप्त होकर कार्यरूपताका प्रादुर्भाव हो जाता है । अतः वहाँपर चारित्रकी स्थितिको आगम में अस्वीकृत कर दिया गया है। यहाँ पर इतनी विशेषता और समझ लेना चाहिये कि यद्यपि निश्चयसम्प चारिण, क्षायिकत्व और यथाख्यातस्वकी दृष्टिसे १२वे गुणस्थानके प्रारम्भमें जीवको उपलब्ध हो जाता है। परन्तु यह सब उसका भावात्मकरूप है, द्रव्यात्मक दृष्टिसे अभी उसकी ( निश्वयसम्यक् चारित्रकी) पूर्णता शेष रह जाती है, क्योंकि अभी भी उसके कर्मोंके साथ बद्धता बनी हुई है । साथ ही निश्चयसम्यग्ज्ञानका पूर्णता और पूर्ण आत्माश्रिताके रूपमें अभी भी अभाव बना रहता है। इसके अलावा नोकर्मनिमित्तक योग भी आत्मा में हुआ करता है। तेरहवे गुणस्थानको आदिमें यद्यपि समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और समस्त अन्तराय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेसे निश्चयसम्यग्ज्ञानकी पूर्णता हो जाती है फिर भी द्रव्यात्मक रूप से निश्चयसम्यक् चारित्र अभी भी अपूर्ण बना रहता है । यद्यपि योगका निरोध हो जानेपर नोकर्मनिमित्तक योग समाप्त हो जाता है फिर भी अघातीकर्म अभी भी कार्यरत रहा करते हैं । इन अघाती कमोंका प्रभाव १४वे गुणस्थानके अन्त समयमें हो समाप्त होता है। अतः उसी समय आत्मा भी द्रव्यात्मकरूप में पूर्ण स्वावलम्बी बनता है, यही निश्चयसम्यक्चारित्रकी पूर्णता है और इसके होनेपर आत्मा भी तत्काल पूर्ण स्वतन्त्र्यमय मुक्तिको प्राप्त हो जाता है । ३
१. आगम में सरागसम्यक्त्वको जो व्यवहारसम्यक्त्व और वीतरागसम्यक्त्वको निश्चयसम्यक्त्व कहा गया है उसके साथ प्रकृतका विरोध नहीं समझना चाहिये, क्योंकि यहाँपर सम्यग्दर्शनके सम्यक्त्व सम्बन्ध में मात्र दर्शनमोहनीय कर्म के उदय अनुदयको अपेक्षासे विचार किया गया है।
२. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय १० के सूत्र ३ व ४ की श्लोकवार्तिकटीका |
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२. तत्वार्थसूत्र, अ० १ के सूत्र १ की श्लोकवार्तिकटीकामे वार्तिकश्लोक ८७ से ९७ तक व इनका भाष्य ।
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