Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३/धर्म और सिद्धान्त : ९५
उत्तर-यद्यपि इस शंकाका उत्तर भव्यजीवराशिके पूर्वोक्त अक्षयानन्तपनेसे ही हो जाता है जब कि मोक्ष जानेका क्रम अनादिसे है, तो भी कुछ विशेष विचार किया जाता है।
जिस तरह भूतकालके समय मुक्तजीवराशिसे असंख्यातगणे हैं उसी तरह भविष्यत्कालके समय भी वर्तमान भव्यराशिसे असंख्यातगणे हैं । ऐसी हालतमें दोनों ही राशियाँ परिमित सिद्ध होती हैं। लेकिन यह परिमितता अक्षयानन्तराशियोंकी हीनाधिकतासे ही मानी गयी है। परिमितताका यह जो लक्षण किया जाता है कि 'जिसकी समाप्ति हो सके' वह अवश्य ही ऊपर कही हुई राशियोंमें नहीं पाया जाता है। जिस तरह आकाशके प्रदेशोंकी संख्या पूछी जाय तो यही उत्तर मिलता है कि अन्तरहित है। लेकिन उनकी परिमितता भी इस ढंगसे सिद्ध की जा सकती है।
लोकाकाशके एकप्रदेशपर अनेक जीव, अनेक 'पुद्गलपरमाणु, धर्म और अधर्म द्रव्यका एक-एक प्रदेश तथा एक कालाणू विद्यमान है। इन सबको वह प्रदेश एक ही समयमें स्थानदान देता है, इससे उस प्रदेशके अनेक स्वभाव सिद्ध होते हैं, कारण कि एक स्वभावसे वह आकाशप्रदेश भिन्न-भिन्न वस्तुओंको स्थानदान नहीं दे सकता तथा आकाश प्रदेश अनन्त हैं । वे भिन्न-भिन्न समयमें भिन्न-भिन्न परिवर्तन करते रहते हैं। यदि समयभेदसे भिन्न-भिन्न परिवर्तन नहीं माने जावें तो आकाशमें कूटस्थता सिद्ध होगी, जो कि वस्तुका स्वभाव नहीं है । दोनों ही प्रकारसे आकाशके स्वभावोंकी गणना की जाय तो आकाशके प्रदेशोंकी तरह अक्षयानन्त होनेपर भी वे स्वभाव उन प्रदेशोंसे अनन्तगुणे सिद्ध होंगे और आकाशके प्रदेश अक्षयानन्त होनेपर भी उन स्वभावोंके अनन्तवें भाग मात्र सिद्ध होंगे। इसी तरह कालकी भूत, वर्तमान और भविष्यत समयराशि भी अपने स्वभावोंके अनन्तवें भाग मात्र सिद्ध होती है। यही आकाश और कालकी परिमितता है। ये राशियाँ अक्षयानन्त होकरके भी उक्त प्रकारसे हीनाधिकरूपमें रहती हैं, इसलिये परिमित कही जा सकती हैं तो परिमित होते हुए भी जिस प्रकार अक्षयानन्त होनेसे कालका अभाव नहीं होगा उसी प्रकार परिमित होते हुए भी अक्षयानन्त होनेसे भव्यजीवोंका भी अभाव नहीं होगा। जिस तरह भव्य जीव मोक्ष चले जाते हैं । इसलिये उनमें कमी होती जा रहो है । उसी तरह भविष्यत्कालके समय भी बीतते चले जाते हैं; इसलिये उनमें भी कमी होती जा रही है।
शंका--जैन शास्त्रोंमें कालद्रव्यके अण स्वीकार किये गये हैं । उनका तो कभी अभाव होता नहीं, कारण कि सत्का विनाश नहीं होता, भूत, वर्तमान और भविष्यतरूप उनकी पर्याय है, जो कि उत्पाद व्यय रूप हैं। कालद्रव्यके सदभावमें ये पर्यायें हमेशा पैदा होती रहेंगी इसलिये उनका कभी अन्त नहीं तरह नये जीवोंकी उत्पत्ति तो होती नहीं, जिससे कि वे कम होते हुए भी समाप्त न हों?
उत्तर--यह बात ठीक है कि भत, वर्तमान और भविष्य कालाणकी पर्यायें हैं । लेकिन विचारना यह है कि ये पर्यायें हमेशा नवीन-नवीन पैदा होती हैं अथवा जितनी भी कालाणुकी पर्यायें हैं वे सब कालाणुमें शक्तिरूपसे विद्यमान हैं और वे ही भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होती हई अनादिकालसे चली आ रही हैं और चली जायेंगी।
द्रव्य कालिक पर्यायोंका पिण्ड है। इसलिये द्रव्यकी जितनी पर्यायें हो सकती है वे चाहे भूत हों या वर्तमान अथवा भविष्य, द्रव्यमें एक ही साथ रहतो अवश्य है लेकिन इतना भी अवश्य है कि उस समयमें द्रव्यकी भूत पर्याय भूतरूपसे वर्तमान पर्याय वर्तमान रूपसे और भविष्यत्पर्यायें भविष्यरूपसे ही रहती हैं । यदि वर्तमान पर्यायके साथ द्रव्यमें भत और भविष्यत्पर्यायोंका सर्वथा अभाव माना जाय, तो यह अभाव
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