Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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९६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य
आकाशके फूलकी तरह तुच्छाभावरूप ही होगा, जिससे आकाशके फलकी जिस प्रकार कभी उत्पत्ति नहीं . होती उसी प्रकार घटकी वर्तमान पर्यायकी भी उत्पत्ति नहीं होना चाहिये तथा ज्योतिःशास्त्रसे जो भावी चन्द्रग्रहणादिका पहिलेसे ही ज्ञान कर लिया जाता है, वह भी असंगत ठहरेगा, कारण कि पहली अवस्थामें वह तुच्छाभाव रूप ही मान लिया गया है। इसलिये वर्तमान पर्यायका इसकी पहली अवस्थामें द्रव्यमें भविष्यद्रूपसे सद्भाव अवश्य मानना पड़ता है। इसी तरह वर्तमान पर्यायके साथ भतपर्यायोंका द्रव्यमें भूतरूपसे सद्भाव नहीं माननेसे वर्तमानमें ज्योतिःशास्त्रादिके द्वारा भत अवस्थाका ज्ञान असंगत ठहरेगा, क्योंकि भूतपर्यायोंको द्रव्यमें तुच्छाभावात्मक मान लिया गया है। इसलिये प्रतिसमय द्रव्यमें त्रैकालिक अनन्त पर्याय अपने-अपने रूपमें अवश्य रहती हैं और वे ही परिवर्तन करती हईं भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत हो जाती हैं, ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। जैनशास्त्रोंमें जो द्रव्यके परिवर्तनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको कारण माना गया है उनमें भाव इन्हीं कालिक पर्यायोंका नाम है अर्थात जिस द्रव्यमें जो वर्तमान पहले भविष्यरूप होगी वही वर्तमानरूप हो सकेंगी, जो वर्तमान होगी वही भूतरूप हो सकेगी। वर्तमान पर्यायमें भविष्यत्पर्याय कारण पड़ती है अर्थात् भविष्यत्पर्याय ही वर्तमानरूप हो जाती है और भूतपर्याय में वर्तमान पर्याय कारण पड़ती है अर्थात वर्तमान पर्याय ही भूतपर्यायरूप हो जाती है इसलिये यह सिद्धान्त भी संगत हो जाता है कि एक द्रव्य दुसरे द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता, अन्यथा कोई कारण नहीं, कि पुद्गलद्रव्यमें जीवद्रव्यकी पर्यायें पैदा न हों। इसी तरह भूतपर्यायें भूतरूपसे परिणमन करती हुईं द्रव्यमें विद्यमान अवश्य रहती हैं, इसलिये “सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति नहीं होती" यह सिद्धान्त द्रव्यकी त्रैकालिक पर्यायोंमें भी लागू होता है क्योंकि सत्पर्यायोंकी तुच्छाभावरूप विनाश और आकाशके फूलकी तरह असत पर्यायोंकी उत्पत्ति मानने में पूर्वोक्त दोष आते हैं ।
प्रत्येक द्रव्यकी कालिक पर्यायें उतनी ही हैं जितने कि कालाणके भूत और भविष्य समय है और जब तक इन पर्यायोंका द्रव्यमें परिणमन हो रहा है तभी तक उस द्रव्यका सद्भाव है । जब तक द्रव्यकी जो पर्याय भविष्यरूप रहती है तब तक द्रव्यमें उस पर्यायका सद्भाव शक्ति रूपसे माना जाता है और जब वह पर्याय वर्तमान हो जाती है तब वह व्यक्त पर्याय मानी जाती है। इसलिये द्रव्यकी भविष्यत्सर्यायका वर्तमान हो जाना ही उत्पाद और वर्तमानका भूत हो जाना ही विनाश माना जाता है । हम लोगोंका प्रयोजन वर्तमान पर्यायसे ही सिद्ध होता है तथा हमारी इन्द्रियाँ वर्तमान पर्यायको ही ग्रहण कर सकती है, इसलिये वर्तमान पर्यायको व्यक्त पर्याय कहा जाता है।
इस तरहसे काल जब द्रव्य है तो उसके भूत, वर्तमान और भविष्य जितने भी समय-पर्याय हो सकते हैं उन सबका कालद्रव्यमें अपने-अपने रूपमें सद्भाव अवश्य मानना पड़ता है, अन्यथा पूर्वोक्त दोष आते हैं और क्रमसे एक-एक समय भविष्यसे वर्तमान और वर्तमानसे भूत होता जा रहा है, तो जिस तरह जीव मोक्ष जा रहे हैं इसलिये उनमें कमी होती जा रही है उसी तरह कालके भविष्यत समय भी वर्तमान और भत होते जा रहे हैं इसलिये उनमें भी कमी होती जा रही है । साथमें यह भी है कि जब कालके असंख्यात समय (छः महिना आठ समयके जितने समय हों) बीत जाते हैं तब तक ६०८ जीव मोक्ष जा सकते हैं। इसलिये यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि यदि भव्यजीवोंकी समाप्ति मानी जाय तो उनके असंख्यातगुणे कालके समयोंकी समाप्ति अवश्य माननी पड़ेगी, जिससे कालद्रव्यका भी अभाव हो जायगा। यदि सत्का कभी विनाश नहीं होता इसलिये काल द्रव्यके सद्भावके लिये उसके समयोंकी समाप्ति
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