Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त ६५
केते हैं तथा अन्तमें उदयमें आकर अर्थात् जीवको अपना फलानुभव कराकर ये कर्म तो निर्जरित हो जाते हैं" । लेकिन उस फलानुभवसे प्रभावित होकर अपने में उत्पन्न विकारी भावों द्वारा वह जीव दूसरे इसी तरह के नवीन कर्मोंसे पुनः बँध जाता है । ये कर्म उदयमें आकर अपना फलानुभव जिस रूपमें जीवको कराते हैं वह जीवका जौदधिक भाव कहलाता है क्योंकि जीवका उस रूप भाव उस कर्मका उदय होनेपर ही होता है, अन्यथा नहीं। कदाचित् कोई जीव अपने में सत्ताको प्राप्त यथायोग्य किसी कर्मको अपने पुरुषार्थ द्वारा इस तरह शक्तिहीन बना देता है कि वह कर्म अपनी फलदानशक्तिको सुरक्षित रखते हुए भी जीवको एक अन्तर्मुहूर्तके लिये फल देने में (उदय में) असमर्थ हो जाता है, कर्मकी इस अवस्थाका नाम उपशम है और इसके होने पर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका औपशमिक भाव कहते है । 3 कचित् कोई जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्मको सर्वथा शक्तिहीन बना देता है, जिससे वह कर्म उस जीवसे अपना सम्बन्ध सर्वथा समूल विछिन्न कर लेता है । कर्मकी इस अवस्थाका नाम क्षय है और इसके होने पर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायिक भाव कहते हैं । इसी प्रकार कदाचित् कोई जीव अपना पुरुषार्थ इस तरह करता है कि कर्मके कुछ अंश (देशघाती रूप) तो उदय रूप रहें, कुछ अंश (सर्वघाती रूप) उदयाभावी क्षयरूप हो जावें और कुछ अंश ( सर्वघातीरूप ) सदवस्थारूप उपशमकी स्थितिको प्राप्त हो जावें तो इसका नाम कर्मकी क्षयोपशम अवस्था है और इसके होने पर जीवकी जो अवस्था होती है उसे जीवका क्षायोपशमिक भाव कहते है" । क्षायोपशमिक भावका अपर नाम मिश्र भाव भी है ।
इस प्रकार कहना चाहिये कि कर्मोके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम होने पर जीवकी अवस्थायें भी क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकरूप हो जाया करती है। अब इनमें यदि कारणताकी व्यवस्थाकी जाय तो कहा जा सकता है --- जोवकी इन औदयिकादि अवस्थाओं की उत्पत्तिमें कर्म तो अपनी उदयादि अवस्थाओंके आधाखर व्यवहारकारण होता है और जीव स्वयं निश्चयकारण है। जैसा कि नयचक्रकी निम्नलिखित गाथासे स्पष्ट होता है
"बंधे च मोक्ख हेऊ अण्णो ववहारदो य णायव्वो । णिच्छयदो पुण जीवो भणिदो खलु सव्वदरिसीहि ॥ २३५॥
अर्थात् बन्ध और मोक्षमें अन्य अर्थात् कर्म अपनी यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमरूप अवस्थाओंके आधार पर व्यवहाररूपसे कारण होता है और जीव निश्चयमपसे कारण होता है।
यहाँ पर "कर्म व्यवहाररूपसे कारण होता है" इसका अभिप्राय यह है कि कर्म निमित्त या सहायकरूपसे कारण होता है और "जीव निश्चयरूपसे कारण होता है" इसका अभिप्राय यह है कि जीव उपादानरूपसे कारण होता है । इस प्रकार कहना चाहिये कि उक्त गाथा द्वारा कर्म में जीवके बन्ध और मोक्षकी उत्पत्तिके प्रति यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके आधारपर निमित्तकारणताका सद्भाव सिद्ध
१. विपाकोऽनुभवः । स यथानाम ततदच निर्जरा । तस्वार्थसूत्र ८२१, २२, २३ ।
२. पंचाध्यायी, २०६७ | धवला पुस्तक १ पृष्ठ २१२ ।
३. पंचाध्यायी, २१९६८ । पंचास्तिकाय, गाथा ५८ तथा उसकी टीका
४. पंचाध्यायी, २-९६९ । धवल, पुस्तक १, पृ० २१२ ।
५. वही, २।९६६ ।
६. वही, २।९६२ ।
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