Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
"आतमको हित है सुख सो सुख आकुलता-बिन कहिये । आकुलता शिव माहिं न तातें शिवमग लाग्यौ चहिये ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग, सो दुविध विचारौ ।
जो सत्यारथ रूप यो निश्चय, कारण सो ववहारौ ॥१।।" इस पद्य में श्रद्धेय पंडितजीने कहा है कि आत्माका हित सुख है और वह सुख जीवमें आकुलताका अभाव होनेपर उत्पन्न होता है। उस आकूलताका अभाव भी मोक्षमें ही है । अतः जीवोंको मोक्षके मागमें प्रवृत्त होना चाहिये। मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप हैं। यह सम्यग्दर्शनादिरूप मोक्षमार्ग निश्चय तथा व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका होता है अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों व्यवहाररूप भी होते हैं और निश्चयरूप भी होते हैं। इस तरह कहना चाहिये कि जो सम्यग्दर्शनादिक निश्चयरूप होते हैं वे निश्चय-मोक्षमार्गमें गर्भित होते हैं और जो सम्यग्दर्शनादिक व्यवहाररूप होते हैं वे व्यवहार-मोक्षमार्गमें गभित होते हैं। इनमें से जो मोक्षमार्ग मोक्षका साक्षात् कारण होता है वह निश्चय-मोक्षमार्ग है और जो मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका कारण होता है वह व्यवहारमोक्षमार्ग है।
यहाँ हम मुख्यतया इसी विषयको स्पष्ट करना चाहते हैं। इसलिये यहाँ पर हम सर्व प्रथम निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चय-मोक्षमार्ग तथा व्यवहारसम्यग्दर्शनादिरूप व्यवहार-मोक्षमार्गके स्वरूपका प्रतिपादन कर रहे हैं। निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्गका स्वरूप
निश्चयसम्यग्दर्शनादिरूप निश्चयमोक्षमार्गका स्वरूप प्रतिपादन करनेके लिये भी श्रद्धेय ५० दौलतरामजीके छहढालाकी तीसरी ढालका निम्नलिखित पद्य पर्याप्त है
'परद्रव्यनतें भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है। आप रूपको जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है ।। आप रूपमें लीन रहे थिर सम्यक्चारित सोई।
अब ववहार मोख मग सुनिये हेतु नियत को होई ॥२॥' इस पद्यका आशय यह है कि समस्त चेतन-अचेतनरूप परपदार्थोकी ओरसे मुड़ कर अपने आत्मस्वरूपकी प्राप्तिकी ओर जीवकी अभिरुचि (उन्मुखता या झुकाव) हो जानेका नाम निश्चयसम्यग्दर्शन है, जीवको अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान हो जानेका नाम निश्चयसम्यग्ज्ञान है और बुद्धिपूर्वक तथा अबुद्धिपूर्वक होने वाली क्षायजन्य पाप व पुण्यरूप समस्त प्रकारकी प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर जीवका अपने आत्मस्वरूपमें लीन हो जाना ही निश्चयसम्यक्चारित्र है।
इस पद्य के अन्तिम चरणमें श्रद्धेय पंडितजीने संकेत किया है कि आगे सम्पूर्ण छहढालामें निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चयसम्यक्चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गके कारणभूत व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्ररूप व्यवहारमोक्षमार्गका विवेचन किया जायगा। इस तरह पंडित दौलतरामजीके द्वारा छहढालामें किये गये विवेचनके अनुसार व्यवहारमोक्षमार्गरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहारसम्यकचारित्रका स्वरूप निर्धारित होता है। उसीका यहाँपर विशेष कथन किया जाता है।
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