Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२० सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
जब कि धर्म और अधर्म द्रव्योंकी बनावटके समान ही लोकाकाशकी बनावट है तो इसका मतलब यही है कि लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर धर्म और अधर्म द्रव्योंका एक-एक प्रदेश साथ-साथ बैठा हुआ है' तथा इसी तरह लोकाकाशके उस उस प्रदेशपर धर्म और अधर्म द्रव्योंके प्रदेशोंके साथ-साथ एक-एक काल द्रव्य भी विराजमान है। इस तरह सम्पूर्ण असंख्यात काल द्रव्य मिलकर धर्म द्रव्य, अथ में द्रव्य तथा लोकाकाशकी बनावटका रूप धारण किये हुए हैं ।
इन चारों द्रव्योंमेंसे आकाश द्रव्य तो असीमित अर्थात् व्यापक होने की वजहसे निष्क्रिय है ही, साथ ही शेष धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और संपूर्ण काल द्रव्योंको भी जैन-संस्कृति में निष्क्रिय द्रव्य ही स्वीकार किया गया है अर्थात् इन चारों प्रकारके द्रव्योंमें हलन चलनरूप क्रियाका सर्वथा अभाव है। ये चारों ही प्रकार के द्रव्य अकंप स्थिर होकर ही अनादिकालसे रहते आये हैं और रहते रहेंगे। इनके अतिरिक्त सभी जीव और सभी पुद्गल द्रव्योंको क्रियावान् द्रव्य स्वीकार किया गया है और यह भी एक कारण है कि जिस प्रकार धर्मादि द्रव्योंकी बनावट नियत है उस प्रकार जीव द्रव्यों और पुद्गल द्रव्योंकी बनावट नियत नहीं है । प्रत्येक जीव यद्यपि धर्म या अधर्म अथवा लोकाकाशके बराबर प्रदेशों वाला है और कभी-कभी कोई जीव अपने प्रदेशों को फैलाकर समस्त लोक में व्याप्त होता हुआ उस आकृतिको प्राप्त भी कर लेता है । परन्तु समान्यरूपसे प्रत्येक जीव छोटे-बड़े जिस शरीरमें जिस समय पहुँच गया हो, उस समय वह उसीकी आकृति" का रूप धारण कर लेता है। पुद्गल द्रव्योंमें यद्यपि एकप्रदेशी सभी पुद्गल क्रियावान् होते हुए भी नियत आकारवाले हैं परन्तु अवगाहन शक्तिकी विविधताके कारण दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंवाले पुद्गलोंके आकार नियत नहीं है। यही वजह है कि दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंवाले अनन्तों पुद्गल लोकाकाशके एक-एक प्रदेशमें भी समाकर रह रहे हैं। वद्यपि सामान्यरूपसे प्रत्येक जीवका निवास लोकाकाशके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें माना गया है, परन्तु परस्पर अव्याघातशक्तिके प्रभावसे एक ही क्षेत्रमें अनन्तों जीव भी एक साथ रहते हुए माने गये हैं ।
प्रत्येक जीव चेतना-लक्षण वाला है और चेतनारहित होने के कारण धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और संपूर्ण काल द्रव्योंको अजीब माना गया है। इसी प्रकार सभी पुद्गल रूपी माने गये है अर्थात् सभी पुद्गलों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार गुण पाये जाते हैं। यही कारण है कि इनका ज्ञान हमें स्पर्शन, रसना, नासिका और नेत्र इन बाह्य इन्द्रियोंसे यथायोग्य होता रहता है। पुद्गलोके अतिरिक्त सब जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और सब काल इन सभीको अरूपी स्वीकार किया गया है अर्थात् इनमें रूप, रस, गंध और स्पर्श इन चारों पुद्गल गुणोंका सर्वथा अभाव पाया जाता है। अतः इनका ज्ञान भी हमें उक्त बाह्य 'इन्द्रियोंसे नहीं
१. धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । तत्त्वात्र ५।१२।
२. द्रव्यसंग्रह, गाथा २२ ।
३. निष्क्रियाणि च । तत्त्वार्थ० ५४७ ।
४. केवलसमुद्धातके भेद लोकपूरण समुद्धातमें यह स्थिति होती है।
५. द्रव्यसंग्रह, गाथा १० ।
६. रूपिणः पुद्गला स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । तत्त्वा० ५२३ ।
७. इन्द्रियग्राह्य होनेसे ही पुद्गल द्रव्योंको मूर्त और इन्द्रियग्राह्म न होनेसे ही शेष सब द्रव्योंको अमूर्त भी माना गया है ।
-पंचाध्यायी २ श्लोक ७ ॥
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