Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३ / धर्म और सिद्धान्त २१ होता है । यद्यपि अनन्तों पुद्गलोंका ज्ञान भी हमें बाह्य इन्द्रियोंसे नहीं होता है परन्तु इससे उन पुद्गलोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका अभाव नहीं मान लेना चाहिये । कारण कि इन गुणोंका सद्भाव रहते हुए भी इन पुद्गलोंमें पायी जानेवाली सूक्ष्मता ही उक्त बाह्य इन्द्रियोंसे उनका ज्ञान होनेमें बाधक है । इसी तरह शब्दका ज्ञान जो हमें बाह्य कर्ण इन्द्रियसे होता है । इससे शब्दकी पौद्गलिकता सिद्ध होती है ।
जीवके अस्तित्व और स्वरूपके विषय में इस लेखमें आगे विचार किया जायगा। शेष द्रव्योंके अस्तित्व और स्वरूपके विषय में यहाँपर विचार किया जा रहा है
जिनका स्वभाव पूरण और गलनका है' अर्थात् जो परस्पर संयुक्त होते-होते बड़े-से-बड़े पिण्डका रूप धारण कर लें और पिण्डमेसे वियुक्त होते-होते अन्तमें अलग-अलग एक-एक प्रदेशका रूप धारण कर लें, उन्हें पुद्गल कहा गया है । ऐसे स्थूल पुद्गल तो हमें सतत दृष्टिगोचर हो ही रहे हैं लेकिन सूक्ष्म से सूक्ष्म और छोटे-से-छोटे पुद्गलोके अस्तित्वको भी जिनका ज्ञान हमें अपनी बाह्य इन्द्रियोंसे नहीं हो पाता है-विज्ञानने सिद्ध करके दिखला दिया है । अणुबम और उद्जनबम आदि पदार्थ उन सूक्ष्म और छोटे पुद्गलोंकी अचित्य शक्तिका दिग्दर्शन करा रहे हैं।
सब जीव और सब पुद्गल क्रियाशील द्रव्य हैं वे जिस समय किया करते हैं और जबतक करते हैं तब तक उनकी उस क्रियामें सहायता करना धर्म द्रव्यका स्वभाव है। इसी तरह कोई जीव या कोई पुद्गल क्रिया करते-करते जिस समय रुक जाता है और जब तक रुका रहता है उस समय और तबतक उसके ठहरने में सहायता करना अधर्म द्रव्यका स्वभाव है। यद्यपि जैन संस्कृति में जीव और पुद्गल द्रव्योंको स्वतः क्रियाशील माना गया है परन्तु यदि अधमं द्रव्य नहीं होता तो गतिमान् जीव और पुद्गल द्रव्योंके स्थिर होने का आधार ही समाप्त हो जाता और यदि धर्मं द्रव्य नहीं होता तो ठहरे हुए जीव और पुद्गलोके गतिमान् होने का भी आधार समाप्त हो जाता, अतः जैन-संस्कृति में धर्म और अधर्म दोनों द्रव्योंका अस्तित्व स्वीकार किया गया है और यही कारण है कि मुक्त जीव स्वभावतः ऊर्ध्वं गमन करते हुए भी ऊपर लोकके अग्रभाग में जैन मान्यता के अनुसार इसलिये रुक जाते हैं क्योंकि उसके आगे धर्म द्रव्यका अभाव है ।
सब द्रव्यों को उनकी निज निज आकृतिके अनुसार अपने उदरमें समा लेना आकाश द्रव्यका स्वभाव है ।" प्रत्येक द्रव्यका लम्बे, चौड़े, मोटे, गोल, चौकोर, त्रिकोण आदि विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होता हुआ छोटा बडा आकार हमें आकाश अस्तिको माननेके लिये बाध्य करता है। अन्यथा आकाश द्रव्यके अभाव में सब वस्तुओंके परस्पर विलक्षण आकारोंका दिखाई देना असंभव हो जाता।
इस प्रकार यद्यपि प्रत्येक जीव, प्रत्येक पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश स्वतः परिणमनशील द्रव्य माने गये हैं परन्तु इन सबके उस परिणमनका क्षणिक विभाजन करना काल द्रव्यका स्वभाव है अर्थात् द्रव्यों
१. अणवः स्कन्धारच भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते भेदादणुः त० सू०५-२५, २६, २७ । । । ।
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२. द्रव्यसंग्रह, गा० १७ ।
३. द्रव्यसंग्रह, गा० १८ ।
४. धर्मास्तिकायाभावात् । - तत्वा०-११९ ।
५. आकाशस्यान्गाहः । तत्त्वा०-५।१८।
६. वर्तनापरिणाम क्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य । तस्वा०-५।२२ ।
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