Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३/धर्म और सिद्धान्त : ९
इसलिए कहना चाहिए कि तीर्थकर महावीरकी देशनाका मुख्य उद्देश्य भी संसारी प्राणियोंको दुःखके जनक अधर्मसे हटाकर सुखके जनक धर्मकी ओर मोड़ना ही था, जिसका प्रतिपादन चरणानुयोगमें किया गया है । धर्म और अधर्मका स्वरूप
___ धर्म और अधर्मका स्वरूप बतलानेके पूर्व इस सम्बन्धमें लोकको दृष्टिको भी समझ लेना आवश्यक है, जो निम्न प्रकार है :
१. प्रायः प्रत्येक मनुष्यकी दृष्टिमें वही सम्प्रदाय श्रेष्ठ है, जिसमें वह पैदा हुआ है, वही दर्शन सत्य है जिसे वह मानता है और उसी क्रियाकाण्डसे स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जो उसे कुल-परम्परासे प्राप्त है। इसके अतिरिक्त शेष सभी सम्प्रदाय निम्न कोटिके, सभी दर्शन असत्य और सभी क्रियाकाण्ड आडम्बर मात्र हैं। इस तरह लोकका प्रायः प्रत्येक मनुष्य इसी आधारपर अपनेको धर्मात्मा और दुसरोंको अधर्मात्मा मान रहा है।
२. लोकमें धर्मात्मा व्यक्तिके लिए आस्तिक और अधर्मात्मा व्यक्तिके लिए नास्तिक शब्दोंका प्रयोग किया जाता है और इन दोनों शब्दोंकी व्युत्पत्ति व्याकरणरमें निम्न प्रकारकी गई है
अस्ति परलोके मतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्ति परलोके मतिर्यस्य स नास्तिकः ।
अर्थात् जो परलोकको मानता है, वह धर्मात्मा है और जो परलोकको नहीं मानता है वह अधर्मात्मा है।
वास्तवमें देखा जाय तो धर्म और अधर्मकी ये व्याख्याएँ पूर्णतः सही न होकर ये व्याख्याएँ ही पूर्णतः सही हैं कि लोकमें जिस मार्ग पर चलनेसे अभ्युदय (शान्ति) और अन्तमें निःश्रेयस (मुक्ति अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य) प्राप्त हो सकता है, वह तो धर्म है और जो लोक तथा परलोक सर्वत्र दुःखका कारण हो वह अधर्म है । तीर्थकर महावीरकी देशनामें इस बातको लक्ष्य में रखकर ही चरणानुयोगमें प्रतिपादित धर्मके दश भेद स्वीकार किए गए हैं।
धर्मके दश भेद और उनका स्वरूप
क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये धर्मके दश भेद है। जीवन में क्रमिक-विकासके आधारपर ही तीर्थंकर महावीरकी देशनामें धर्मकी यह दश संख्या निश्चित की गयी है । आगे इनका पृथक्-पृथक् विकास-क्रमके आधारपर स्वरूप-विवेचन किया जा रहा है।
१ क्षमा-कभी क्रोधावेशमें नहीं आना, कभी किसीको कष्ट नहीं पहँचाना, कभी किसीके साथ गाली-गलौज या मार-पीट नहीं करना तथा सबके साथ सदा सहिष्णुताका बर्ताव करना।
२. मार्दव-कभी अहंकार नहीं करना, कभी किसीको अपमानित नहीं करना, सबके साथ सदा समानताका व्यवहार करना और मनमें कभी प्रतिष्ठाकी चाह नहीं करना।
३. आर्जव-कभी किसीके साथ छल-कपट नहीं करना, कम देकर अधिक लेने और असली वस्तुमें नकली वस्तु देनेका कभी प्रयत्न नहीं करना-इस तरह अपने जीवनको लोकका विश्वासपात्र बना लेना।
४. सत्य-सबके साथ सदा सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करना, हित, मित और प्रिय
१. तत्त्वार्थसूत्र ९।६।
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