Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२७
राजस्थानी जाति माना जाता है। इनकी उत्पत्ति जैसलमेर२४ या उज्जैनसे१० असम्भव है, इनका मूल स्थान रायबरेली जिले में प्राचीन जैस या जायस ही प्रतीत होता है। ई० १२५६ में जायस जातिके लक्खनने अणवय-रयण-पाइउकी रचना की थी । इनका निवास यमुनाके किनारे रायवड्डीया स्थानपर था। ऐसा प्रतीत होता है कि इनमेंसे जो राजस्थानमें जाकर बसे वे अधिकतर जैन बने रहे, पर जो उत्तर प्रदेशमें ही रहे, वे अधिकतर वैष्णव हो गये । वर्तमानमें बुन्देलखण्डके आसपास इनका निवास नहीं है।
शिलालेखोंसे व वर्धमान पुराणके उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि बुन्देलखण्डकी वर्तमान गहोई जाति ही प्राचीनकालमें गृहपति कहलाती थी। गहोई शब्दकी उत्पत्ति गुह्य शब्दसे कही जाती है पर यह काल्पनिक है।१६ बुन्देलखण्डमें बारहवीं शताब्दीमें अनेक स्थानोंपर इस जातिद्वारा स्थापित जैन मूर्तियाँ पाई गई हैं। इसी जातिमें पाणाशाह नामके एक श्रेष्ठीने अनेक मंदिरोंका निर्माण कराया था, इनके बारेमें कई किंवदंतियाँ कही जाती हैं। इन्हें गोलापूर्व कहा गया है, पर यह लेखोंके आधारपर गलत सिद्ध होता है। इनमें जातिका संगठन परवारोंसे मिलता है। इनमें बारह गोत्र हैं, हर गोत्र ६ अल या आंकोंमें विभक्त है, विवाहमें अपना गोत्र व माँ, नानी व दादीका अल टाला जाता है । इनमें ई० ११५० के एक लेख में कोच्छल गोत्रका उल्लेख है। अलोंके नाम मोर, सोहनिया, नगड़िया, पहाड़िया, पोपरवानिया, दादरिया, म ले आदि हैं । १६ ये प्राचीनकालमें शैव भी रहे हैं। वर्तमानमें इनमेसे कोई भी जैन नहीं हैं। नवलसाहने इनमें जैन लगारका उल्लेख किया है। वर्तमान में इनकी उत्पत्ति खरगपुरसे बताई जाती है। इनकी उत्पत्तिके बारेमें एक कहानी कही जाती है जो स्पष्टतः काल्पनिक है। प्राचीनकालमें, विशेषकर बौद्ध ग्रन्थोंमें गृहपति शब्दका प्रयोग सम्पन्न बनियोंके लिये किया गया है, इस जातिकी उत्पत्ति किसी स्थानके गृहपतियोंसे हई होगी। वर्तमान में ये वैष्णव हैं, व इनका जैनोंसे सम्बन्ध नहीं हैं । भार्गव ब्राह्मण इनके पुरोहित हैं ।
वर्तमान शताब्दीके आरम्भमें इनमें से कोई भी जैन नहीं पाये गये थे। इनके जैन न रहनेका कारण ज्ञात नहीं है। ये बुन्देलखण्डके उत्तरी भागमें बसे जान पड़ते हैं। जिस प्रकार गोलापूर्व डाकुओंके भयमें दक्षिणमें जाकर बसते रहे हैं, उसी प्रकार ये उत्तर प्रदेशमें जाकर बसते रहे हैं । सम्भव है, इनपर ब्राह्मणोंपर प्रभाव होनेसे इन्होंने जैन परम्पराका त्याग कर दिया हो।
गोलापूर्व जातिपर सबसे अधिक प्रभाव परवार जातिका प्रतीत होता है। ये ही गोलापूर्वोके सबसे निकटके हैं व बुन्देलखण्डके जैनोंमें इनकी संख्या सबसे अधिक है। इन शिलालेखोंमें पुरवाड या पौरपट्ट लिखा गया है। इसे हिन्दी विश्वकोषमें उड़ीसावासी लिखा है। इस भ्रमका कारण शैरिंगका एक ग्रन्थ है। उत्तर प्रदेशके मैनपुरी जिलेमें काफ़ी परवार बसे हैं, इनमेंसे अधिकतर वैष्णव हो गये हैं। इन्होंने पुर शब्दकी उत्पत्तिका अनुमान पुरी (जगन्नाथपुरी) से लगाया जिसका शैरिंगने उल्लेख किया है। रसेल व हीरालालने इसे राजस्थानसे उत्पन्न माना है ।१६ वास्तवमें शिलालेखों आदिके आधारपर इनका आदिस्थान चन्देरी (जि० गुना) के आसपास होना चाहिये । गुनाके पश्चिममें लगे हुए राजस्थानके झालावाड़ व कोटा जिले हैं जो परवार पश्चिमकी तरफ जा बसे, वे राजस्थानी या मालवी बोलने लगे। झाँसी जिलेमें मदनपरके पुरपट्टन नामके प्राचीन स्थानका अवशेष है२१, सम्भव है परवार वहींसे निकले हों। इन का पोरवाड़ (प्राग्वाट) या परमार जातियोंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। इनमें १२ गोत्र है, हर गोत्र १२ मूरोंमें विभाजित है । परम्परागतरूपसे अपना गोत्र व माँ, नानी, दादी आदिके ७ मूर (कुल आठ शाखायें) विवाहके लिये टाली जाती हैं । पर कोई-कोई चार ही शाखायें टालते थे। इस कारणसे इनमें अष्टशाख (उत्तम) व चौसाख दो श्रेणियाँ हैं (इसी प्रकारका बिहार-बंगालके ग्वालोंमें सतमूलिया-नौमूलिया श्रेणियाँ है३१)। बिनायके लहरीसेन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org