Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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७८ : सरस्वतो-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ पर बहुत सरलताके साथ, शास्त्रीय प्रमाणोंका साक्ष्य सामने रखते हुए, स्पष्ट रूपसे निरूपित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दर्शनकी ऐसी गूढ़-गुत्थियोंको सरलताके साथ, थोड़े-से शब्दोंमें सुलझाकर रख देना उसीके द्वारा सम्भव है जिसकी दृष्टिमें वस्तु-स्वरूपकी व्यापकता स्पष्टरूपसे झलकती हो और जिसके मनमें आचार्योंके प्रति बहुमान तथा आगमके प्रति अटल श्रद्धान हो । समीक्ष्य आलेखके सन्दर्भ में पण्डितजी एक तत्त्वदर्शी विद्वानके रूपमें इन सारी कसौटियोंपर खरे उतरते हैं। उनका यह लगभग सवासौ पृष्ठका निबन्ध 'गागरमें सागर' कहा जा सकता है ।
प्रमेयकमलमार्तण्डके व्याख्यानमें परीक्षामुखसूत्रके दूसरे अध्यायके दूसरे सूत्रके व्याख्यानमें दूसरे सूत्रका उद्धरण देते हुए पण्डितजोने यह स्पष्ट किया है कि-"कार्यकारणभावके प्रसंगमें उपादान में दो प्रकारकी शक्तियाँ स्वीकार की गई हैं--एक द्रव्यशक्ति और दूसरी पर्यायशक्ति । इनमें अनादिनिधन स्वभाववाली होनेसे द्रव्यशक्ति नित्य मानी गई है और सादि-सांत स्वभाववाली होनेसे पर्याय-शक्ति अनित्य ही मानी गई है । द्रव्यशक्ति यद्यपि नित्य है तथापि उसका यह अर्थ नहीं है कि सहकारी कारणके बिना ही वस्तुमें कार्यकी उत्पत्ति सम्भव हो जायेगी, क्योंकि पर्यायशक्तिसे समन्वित द्रव्यशक्ति ही कार्यका निष्पादन करने में समर्थ होती है । द्रव्यमें वह पर्याय-परिणति सहकारीकारणके सहयोगसे ही होती है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जब कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता-विशिष्ट द्रव्यको उप युक्त सहकारी कारणका सहयोग प्राप्त होता है तभी पर्याय उत्पन्न होती है।"
इस प्रकार द्रव्यको योग्यताके बिना जिस प्रकार कार्यकी उत्पत्ति असम्भव है उसी प्रकार उसमें सहकारीकारण भी. अनिवार्य रूपसे, सहायक है, अकिंचित्कर नहीं है। द्रव्यमें कार्यरूप परिणत होनेकी निजी योग्यताका नाम ही "द्रव्यशक्ति" अथवा "नित्य उपादानकारणतां" है। वह परिणमन जब केवल 'स्वप्रत्यय" होता है तब एक-के-पश्चात्-एक ही रूपमें, नियतधाराको लेकर, सहकारकारणकी अपेक्षासे रहित सतत होता रहता है। परन्तु ऐसी परिणतिमें पूर्व परिणमनको उत्तरपरिणमनका कारण मान लिया गया है। इस प्रकार उस पूर्व परिणमनका नाम ही “पर्याय-शक्ति” या “अनित्य उपादानकरणता" है । परन्तु जब हम "स्वपर-प्रत्यय" परिणमनकी बात करते हैं तब द्रव्यमें पूर्व पर्यायरूप जो आनत्य उपादानकारणता है उसका विकास निमित्तकारणसापेक्ष ही होता है । इस तरह जब जैसे निमित्तोंका सहयोग उपादानकारणभूत वस्तुको प्राप्त होता है तब उस वस्तुका वैसा ही परिणमन अपनी योग्यताके कारण होता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि स्वपर-प्रत्यय परिणमन भी स्व-प्रत्यय कार्यकी तरह वस्तुकी अपनी योग्यताके अनुसार ही होता है परन्तु वह योग्यता अकेली ही कार्य उत्पादनमें समर्थ नहीं हुआ करती । पर्यायशक्तिरूप अनित्य उपादानकारणता वहाँ अनिवार्य होती है और उस पर्याय-परिणतिका विकास निमित्तकारणका सहयोग मिलनेपर ही सम्भव होता है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि द्रव्यमें अनेक प्रकारकी परिणप्ति करनेकी योग्यता एक साथ होती है । परन्तु "स्वपर-प्रत्यय' विधानसे जैसे-जैसे निमित्तकारण मिलते जाते हैं, तदनुसार ही पर्यायशक्तिका विकास होनेके कारण द्रव्यकी परिणति वैसी ही हो पाती है।
सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजीने लिखा है--'उपादानकारण ही कार्यका नियामक होता है। पण्डित बंशीधरजीने अपनी पुस्तकके अन्तमें विस्तृत विवेचना करते हुए पण्डित फूलचन्द्रजीको इस विवक्षाविहीन धारणाका खण्डन करते हुए सम्यक् प्रकारसे यह सिद्ध किया है कि-'स्वपर-प्रत्यय कार्यका नियामक न केवल उपादान होता है और न केवल निमित्त ही होता है, किन्तु उपादान और निमित्त दोनों ही मिलकर उसके नियामक होते हैं। यह लिखना कि जैनाचार्य उपादानकारणको ही कार्यका नियामक मानते हैं, जैनाचार्योंका अपवाद और उनके द्वारा रचित आगमका अपलाप करना ही है। पुस्तकका यह परिशिष्ट भी देखने योग्य है।
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