Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८१
चर्चाका आयोजन पूज्य आचार्य श्रीके संघके सानिध्य एवं आदरणीय ६० वंशीधरजी न्यायालंकारकी मध्यस्थता में दि० २२ अवटबरसे १ नवम्बर १९६३ तक हुआ ।
इस तत्त्वव में परस्पर चर्चाओंके हेतु दोनों पक्षोंके विद्वानोंमें प्रथमपक्ष (पूर्वपक्ष) के प्रतिनिधि सर्वश्री पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद, पं० मक्खनलालजी शास्त्री, मुरैना, पं० जीवंधरजी न्यायतीर्थ, इन्दौर, पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बोना और पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर तथा द्वितीयपक्ष (उत्तर पक्ष) की ओरसे सर्वश्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, श्री नेमीचन्द्रजी पाटनी, आगरा तथा पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री ये तीन प्रतिनिधि थे।
उपर्युक्त विद्वानोंके अतिरिक्त अनेक गण्यमान्य विद्वान् भी चर्चाओंमें उपस्थित थे, जिनमें प्रमुख हैंसर्वश्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री वाराणसी, पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार, सहारनपुर, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, पं० अजितकुमारजी शास्त्री दिल्ली, पं० राजेन्द्रकुमारजी, मथुरा, पं० दयाचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, सागर, पं० इन्द्रलालजी शास्त्री, जयपुर, पं० परमानन्दजी शास्त्री दिल्ली, ब्र० श्रीलालजी काव्यतीर्थ श्री महावीरजी, ब्र० सूरजमलजी, खानिया, पं० नरेन्द्रकुमारजी भिसीकर कारंजा, पं० मिश्रीलालजी शास्त्री लाडनू, बाबू नेमिचन्द्र जी वकील, सहारनपुर, पं० हेमचन्द्रजी एवं श्री मनोहरलाल जी अजमेर, पं० पन्नालालजी सोनी, कपूरचन्द्रजी वरैया लश्कर । इनके अतिरिक्त भी अनेक विद्वान् एवं श्रावक, श्रीमन्त यहाँ उपस्थित थे।
इस तत्त्वचर्चाको मूल पृष्ठभूमिमें आ० पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित "जैन तत्त्वमीमांसा"' नामक बहुचर्चित ग्रन्थ भी प्रमुख रहा है; क्योंकि जिन विषयोंपर विरोध था, प्रायः उनका प्रतिपादन इस ग्रन्थमें किया गया है ।
आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजके संघकी उपस्थितिमें उस समय तक समागत सत्रह विद्वानोंकी एक गोष्ठी हुई, जिसमें इस तत्त्वचर्चा हेतु निम्नलिखित कुछ सामान्य नियम निर्धारित किये गये, जिन्हें भविष्यमें उपयोगिताकी दृष्टिसे उधत किया जा रहा है।
१. तत्त्वचर्चा वीतरागभावसे होगी । २. तत्त्वचर्चा लिखित होगी। ३. वस्तुसिद्धिके लिए आगम ही प्रमाण होगा। ४. पूर्व आचार्यानुसार प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दीके ग्रन्थ प्रमाण माने जायेंगे । ५. चर्चा शंका-समाधानके रूपमें होगी। ६. दोनों ओरसे शंका-समाधानके रूपमें जिन लिखित पत्रोंका आदान-प्रदान होगा, उनमेंसे अपने-अपने पत्रोंपर अधिक-से-अधिक ५-५ विद्वानों और मध्यस्थके हस्ताक्षर होंगे। इसके लिए दोनों पक्षोंकी
ओरसे अधिक-से-अधिक ५-५ प्रतिनिधि नियत होंगे। ७. किसी एक विषय-सम्बन्धी किसी विशेष प्रश्नपर शंका-समाधानके रूपमें पत्रोंका आदान-प्रदान
अधिक-से-अधिक तीन बार तक होगा। दिनांक २२ अक्टूबर १९६३ को आचार्यश्रीके सानिध्यमें इस तिथि तक समागत २३ विद्वानोंकी
१. जैन तत्त्व-मीमांसा-लेखक एवं संपादक-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, अशोक प्रकाशन-मंदिर,
वाराणसी ५। २. सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थ : (पंचम खण्ड), पृ० ६४५-६४६ ।
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