Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १०७
ये सभी दिगम्बर जैन हैं । इनमें से कुछ हिन्दू भी कहे जाते हैं पर उनके बारेमें कोई जानकारी नहीं मिल सकी । १६ संभवतः इसी नामकी अन्य हिन्दू जातियाँ होनेके कारण यह भ्रम हुआ होगा । गोलापूर्वीका एक भाग पचविसे कहलाता है । बुन्देलखंडकी सभी जैन जातियोंमें परस्पर भोजन व्यवहार रहा है, अर्थात् सभी जातियोंमें एक पंक्ति में बैठनेका अधिकार रहा है । १६, १७ रसैल व हीरालाल के अनुसार गोलापूर्व जैन व नेमा जातियों में पक्के भोजनका व्यवहार था । १६ इनमें गोलापूर्वी व परवारों में कहीं-कहीं विवाह सम्बन्ध होनेका भी लिखा है । हिन्दी विश्वकोष में इनके कपड़ा, घी आदिके व्यापारका उल्लेख किया है ।" जैनोंमें ८४ जातियाँ कही गई हैं, ८४ जातियोंके नामोंकी अनेक सूचियाँ उपलब्ध हैं । 13, १७ इनमेंसे अनेक में गोला पूर्व जातिका नाम है ।
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गोला पूर्व जातिके प्राचीन शिलालेख अनेक स्थानोंमें मिलते हैं । बीसवीं शताब्दीके पूर्व गोलापूर्व जातिके बारेमें जानकारी केवल एक ही प्रमुख स्रोतसे उपलब्ध थी । बुन्देलखण्डमें मलहराके पास खटौरा ग्रामके निवासी नवलसाह चंदेरियाने ई० १७६९ में वर्धमान पुराणको रचना की थी। इसमें ८४ जातिके वैश्योंकी एक सूचीके बाद गोलापूर्व जातिकी उत्पत्तिका वर्णन किया है । गोलापूर्वोके ५८ गोत्रोंकी एक सूची दी है । नवलसाहने अपने परिवार के इतिहासका भी काफ़ी पुराने अर्सेसे वर्णन किया है । १७
वर्तमान शताब्दी में सन् १९११ में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन डायरेक्टरीका प्रकाशन हुआ । ४ इसमें सभी दिगम्बर जातियोंके बारेमें अत्यन्त परिश्रमसे एकत्र जानकारी मौजूद है । सन् १९४० में अखिल भारतीय गोला पूर्व डायरेक्टरीका प्रकाशन हुआ, १५ जो गोलापूर्व जातिके बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन है । अभी कुछ वर्ष पहले एक अन्य गोलापूर्वं जातिकी डायरेक्टरीका प्रकाशन हुआ था, पर उसमें जानकारी अधूरी होनेके कारण उसकी उपयोगिता सीमित है । गोलापूर्व जातिके सम्बन्धमें अनेक प्राचीन शिलालेख प्रकाशमें आये हैं । शोध पत्रिकाओं में गोलापूर्व जाति पर कुछ लेख उपलब्ध हैं । अभी हालमें दमोह नगर व छिंदवाड़ा जिलेके गोलापूर्व जैन समाज द्वारा स्थानीय जनगणना भी प्रकाशित हुई है । १८, १९
जातियोंकी उत्पत्ति कैसे हुई, इसके बारेमें अभी तक स्पष्ट नहीं जाना जा सका है। इसका वैज्ञानिक अध्ययन करनेकी आवश्यकता है। हर जैन जाति कि उत्पत्तिके बारेमें तीन महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे जा सकते हैं
१. जाति की उत्पत्ति कहाँसे हुई ?
२. जातिकी उत्पत्ति कब हुई ?
३. उत्पत्तिका कारण क्या था ?
अनेक जातियोंकी उत्पत्ति के बारेमें कई किंवदंतियाँ पाई जाती हैं। परम्परागत धारणाओंकी पुष्टि करने के प्रयासको अपेक्षा उचित नियमोंका प्रयोग करके निष्कर्ष निकालना अधिक महत्वपूर्ण रहेगा । अनेक जातियोंकी उत्पत्ति बारेमें जो धारणायें पाई जाती हैं, वे अक्सर कल्पित हैं। अक्सर जातिके नामको लेकर जाति की उत्पत्तिका अनुमान लगानेकी कोशिश की गई है। इस कारण से कई भ्रमजनित कल्पनायें मौजूद हैं, जिनमें से कुछके उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं ।
१. बनारसीदासने अपने अर्धकथानक में लिखा है कि विहोली ग्रामके राजपुतोंने णमोकार मंत्रकी माला पहनी, इस कारणसे वे श्रीमाल कहलाये । वास्तवमें श्रीमाल जातिका नाम श्रीमाल ( भीनमाल ) स्थानसे हुआ है।
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२. ओसवाल शब्दकी उत्पत्ति अश्ववाल ( अर्थात् राजपूत) से कभी - कभी बताई जाती है । पर यह शब्द निश्चित ही ओसिया ( उपकेश) मूलस्थान के कारण है ।
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