Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १०५
यह मत
क्षत्रिय,
हैं, और जो भी जातियाँ वाणिज्यमें लगी हैं, उन्हें वैश्य माना जाता है । दूसरा परम्परागत मत संस्कृत व शास्त्र आदिसे परिचित ब्राह्मणों का मत है। इसके अनुसार वही जातियाँ द्विज ( ब्राह्मण, वैश्य) हैं जिन्हें परम्परागतरूपसे ब्राह्मण उपवीत देते आ रहे हैं। मनु आदि लेखकोंके समयमें द्विज दक्षिणापथमें नहीं बसते थे, इस कारण से दक्षिणापथमें द्विज वही हो सकते हैं जो उत्तरसे जाकर बसे हों। गुजरात व महाराष्ट्र दक्षिणापथ में माने जाते हैं (इसीलिये गुजराती व महाराष्ट्री ब्राह्मण पंचद्रविड़में आते हैं) । परम्परागत मतसे राजपूत, खत्री आदि क्षत्रिय माने जाते हैं, पर कुर्मी जाट आदि नहीं । कई बनिया जातियाँ इस मतसे सच्छूद्र मानी जाती हैं। अधिकतर बनिया जातियाँ जिनमें जैन व हिन्दू दोनों ही हैं, उनके हिन्दू विभागको वैश्य माना गया है ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड' इसी मतको लेकर लिखी गई है ।
तीसरा मत कठोर मत है जिसके अनुसार द्विजों में वर्तमानकालमें सिर्फ ब्राह्मण ही हैं, क्षत्रिय व वैश्य वर्णोंका नाश हो चुका है । यह नाश कैसे हुआ व कब हुआ, इसके बारेमें संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते । फिर भी यह मत ऐतिहासिक दृष्टिसे काफ़ी महत्त्वपूर्ण है ।
यह मत समय-समय पर कुछ ब्राह्मण पंडितों द्वारा व्यक्त किया गया था । एक बार यह ब्रिटिश अदालतमें भी उठाया जा चुका है'। ऐसा कहा जाता है कि क्षत्रियोंका नाश परशुराम द्वारा संहार किये जानेपर हुआ । चन्द्रगुप्त मौर्य व उसके उपरांतके राजवंशोंको शूद्र माना गया है । वर्तमान में जितने भी राजपूत घराने हैं, किसीके बारेमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे उनका रामायण-महाभारतकालीन क्षत्रियोंसे संबंध माना जा सके । अगर पं० ओझा की गणना मानी जाय तो महाभारतका युद्ध ईस्वीपूर्व १४७१ के आसपास हुआ था। वर्तमान राजपूत वंशों में सबसे पुराने उल्लेख चाहमानों (चौहानों) का ५५१ ई० का माना जा सकता है ८१९ । राष्ट्रकूट (राठौर) वंशका प्रथम उल्लेख ६३० ई०, गुर्जर प्रतिहारों (पडिहार) का ७३० ई०, मेवाड़के गुहिल (गुहिलौत ) वंशका ७३५ ई०, कच्छपघट (कछवाहे) वंशका करीब १००० ई० के आसपास का माना गया है । ये राज्यकी स्थापना के बाद ही प्रसिद्ध हुए हैं । राजपूतोंके पहले उत्तर-पश्चिमी भारतमें शक, हूण, गुर्जर, अभीर आदि जातियोंका व्यापक प्रभाव था । बहुतसे लेखकोंका " मत है कि राजपूतों की उत्पत्ति इन्हीं कबीलोंसे हुई है । इन जातियोंमेंसे जो परिवार प्रभावशाली हो गये, ब्राह्मणोंने उन्हें राजपूत संज्ञा देकर क्षत्रिय मान लिया । गूजर जातिको राजपूत नहीं माना जाता, पर बडगूजर जो गूजर जाति से निकले समझे जाते हैं, राजपूत माने जाते हैं । कछवाहा व काछी (जो आज भी कच्छपघटोंके मूलस्थान में काफ़ी संख्या में हैं ) जातिका भी कभी - कभी ऐसा ही संबंध माना जाता है । इसी प्रकार से गोंडों में से राजगोंड, भारोंसे राजभार, भीलोंसे भिलाल आदिकी उत्पत्ति मानी जाती है । उदयपुरके गुहिलौत (सिसोदिया) व कोचीनके राजपरिवार" की उत्पत्ति अंशत: ब्राह्मणोंसे ही मानी जाती है। पंजाबकी खत्री जाति में यज्ञोपवीत व वेदाध्ययनकी परम्पराको देखकर कभी-कभी उन्हें ही क्षत्रियोंका वंशज माना जाता है | इस परम्पराका उल्लेख आर्यसमाज की स्थापना ( ई० १८७७ ) से भी पहलेका मिलता है । कोई-कोई इन्हें वर्णसंकरोंमेंसे मानते हैं ।
इसी तरहसे बनिया जातियोंमे से किसीके भी आठवीं शताब्दी के पहलेके उल्लेख नहीं मिलते । इनकी उत्पत्ति या तो राजपूतोंसे (ओसवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल आदि) या क्षत्रियोंसे ( अग्रवाल, गोलाराडे आदि) या ब्राह्मणोंसे (पद्मावतीपुरवार २, अग्रहारी) से बताई जाती । यदि सभी बनिया जाति अन्य वर्णोंसे उत्पन्न हैं, तो कठोर मत के दृष्टिकोणसे प्राचीन वैश्य जातिका अस्तित्व नहीं रह गया है ।
उपरोक्त तीनों मतों में से कौनसा मत सही है, यह जानना मुश्किल है । लेखकका व्यक्तिगत मत यह है कि वर्तमान जातियोंको चार वर्णोंमें बाँटनेका कोई भी प्रयास उपयोगी नहीं है ।
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