Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१२० : सरस्वती-धरद्पुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
मिलकर उसका मुकाबिला किया था। इनके राज्यका अधिकतम विस्तार उत्तरमें अहिच्छत्र से मिथिला तक व दक्षिणमें नर्मदा नदी तक रहा था, पर स्थायी अधिकार बुन्देलखंडके आसपास ही रहा था। यही भाग जैजाकभुक्ति कहलाया।
अनेक चंदेल राजाओंके समयमें जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई । मदनवर्माके राज्य कालमें प्रतिष्ठित जैन मूर्तियोंकी संख्या आश्चर्यजनक है । अहारका प्राचीन नाम मदनसागर या मदनेशसागर था। यह स्थान मदनवर्माके द्वारा ही बसाया गया प्रतीत होता है। इस स्थानपर गोलापूर्व, जैसवाल, गृहपति, पौरपाट, खण्डेलवाल, मेडवाल, लमेंच, मइडित, माधव, गोलाराड, गगराट, वैश्य , माथुर, महेशपउ (माहेश्वरी), देउवाल व अवधपुरा इन जातियों द्वारा प्रतिष्ठापित जैन मूर्तियाँ पाई गई हैं ।२७ दुर-दूरसे आकर यहाँ जैनोंने प्रतिष्ठायें क्यों कराई, यह स्पष्ट नहीं है। किसी भी अन्य स्थानपर इतनी सारी जैन जातियोंके लेख नहीं मिले हैं । हो सकता है कि किसी कारणसे यह प्रसिद्ध तीर्थ बन गया हो या व्यापारका केन्द्र हो गया हो । यह तो स्पष्ट है कि मदनवर्मा जैनधर्मका संरक्षक था। यह सम्भव है कि मदनवर्मा ही वह चन्देल नरेश हो जो दीक्षा लेकर गोल्लाचार्य कहलाया । एक महत्त्वपूर्ण राजवंशके नरेश द्वारा जैन दीक्षा लिया जाना असम्भव नहीं है । मान्यखेटके राष्ट्रकुट अमोघवर्ष (ई० ८१४.८७८) जिनका राज्य दक्षिणापथके अधिकतर भागपर था, ने भी ई० ८६० के आसपास राजपाटका त्याग कर दिया था व सम्भवतः दीक्षा ले ली थी।६ मदनवर्मा के समयमें ही गजरात व राजस्थानके शासक अणहिलपाटकके चालुक्य कुमारपाल (ई० ११४३-११७२) जैनधर्मके पालक व महान संरक्षक थे। यदि मदनवर्मा ही गोल्लाचार्य थे, तब जैन दीक्षा धारण करने वाले अन्तिम मुकूटबद्ध (स्वतंत्र) राजा मदनवर्मा थे, न कि चन्द्रगुप्त मौर्य (जैसा कभी-कभी माना जाता है)। जैनधर्मको रक्षाका श्रेय गुजरात-मारवाड़में कुमारपालको व दक्षिणमें अमोघवर्षको दिया जाता है। सम्भव है, बुन्देलखण्डमें जैनधर्मकी रक्षा मदनवर्मा द्वारा हई हो ।
मदनवर्माके पुत्र परमाद्धि (या परमाल) के कालमें चाहमान पृथ्वीराजने आक्रमण किया। इसका विवरण पृथ्वीराज-रासो व आल्ह-खंडमें हुआ है। कालान्तरमें इनकी शक्तिका क्षय हो गया । ई० १३१५ के आसपास हए वीरवाके बाद इनकी हैसियत जमींदारों जैसी ही रह गई। गढ़मंडल (गोंडवाना) की रानी दुर्गावती, जिसकी ई० १५६४ में आसफ़खाँसे लड़ाई हुई थी, के पिता कीरतराय इसी वंशके थे ।
जब चन्देलोंका क्षय हो रहा था, तब क्रमशः बुन्देलोंका उदय हुआ। सन् १५३१ में रुद्रप्रतापने ओरछाकी स्थापना की व उसे राजधानी बनाया। सभी बुन्देले राजपरिवार रुद्रप्रतापके ही वंशज हैं। इन्हें गाहडवालों व स्थानीय योद्धा जातियोंसे उद्भूत कहा जाता है। अन्य राजपूतोंमें सामान्यतः विवाहके लिये कुल टाला जाता है, पर बुन्देलोंका विवाह बुन्देलोंमें ही होता है । बुन्देल वंशके राजा निर्भीक व स्वाभिमानी प्रवृत्तिके रहे हैं। इनमेंसे कई मुगलोंके महत्त्वपूर्ण मनसबदार रहे हैं, फिर भी उनका मुगलोंसे विद्रोह व संघर्ष ही चलता रहा था।४° बुन्देले शासकोंमें परस्पर फूट रहने के कारण बुन्देलखण्डमें कभी लम्बे समय तक शान्ति नहीं रही। मराठोंके समयमें बुन्देलखण्ड क्रमशः मराठोंके अन्तर्गत हो गया।
ब्रिटिश राज्य हो जानेपर, सागर व दमोह जिलोंमें स्थायी शासन हआ व रेल आदिके कारण संचार व्यवस्था हो गई। बन्देलखण्डके आन्तरिक भागोंसे यहाँ जैन बड़ी संख्या में आकर बसने लगे। गोलापूर्व जातिका उद्भव और विकास
ऊपरके विवेचन से यह स्पष्ट है कि गोलापूर्व जैन बारहवीं शताब्दीमें पपौरासे धामोनीके बीच रहते थे, व कम से कम डेढ़-दो सौ वर्षोंसे इनका वहीं निवास था। गोल्ला देशके उत्तरी भागमें रहनेवाली गोलालारे व गोलापूर्व ब्राह्मण जातियोंसे इनका क्या संबंध है, इस पर विचार आवश्यक है ।
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