Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१२२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
उपरोक्त कारणोंसे गोलापूर्व जैनों व गोलापूर्व ब्राह्मणों में कोई संबंध प्रतीत नहीं होता। गोलापूर्वब्राह्मणोंके एक-दो गोत्र जैनोंके गोत्रोंसे मिलते-जुलते है, पर यह संयोग ही लगता है। - नवलसाह चंदेरियाने गोलापूर्व जातिको तीन भागोंमें विभक्त कहा है विसविसे, दशविसे व पचविसे । वर्तमानमें दशविसे सुनने में नहीं आते। इस बारेमें कल्पना की गई है कि किसी समय कोई विवाद हुआ जिससे जाति तीन भागोंमें बट गई। एक भागमें २०x२० = ४०० घर थे, दूसरेमें १०x२० % २०० व तीसरेमें ५४ २० = १०० घर । इनसे हो तीन भेदोंकी उत्पत्ति हुई । परन्तु लगभग सभी बनिया जातियों में इस प्रकारका भेद देखते हुए यह कल्पना सही नहीं लगती। गोलापूर्वोमें सिर्फ १.८%पचविसे हैं (सन् १९१४ में १९४) बाकी ९९.२% सामान्य है । पचविसोंमें सिर्फ ८ गोत्र हैं। ये केवल २३ ग्रामोंमें बसते थे जो अधिकतर रहली तहसील (जि. सागर), हटा तहसील (जिला दमोह) व जबलपर जिलेमें हैं । पचविसे यहाँ काफी समयसे बसे हैं। बहुतसे सम्पन्न हैं व मन्दिरोंके निर्माता हैं। इस क्षेत्रमें अन्य गोलापूर्व पिछले डेढ़-दो सौ वर्षोंसे ही आकर बसे हैं, जबकि पचविसे बहुत पुराने समयसे वहींके वासी हैं ।
दमोह व जबलपुर जिले डाहल मंडल में हैं, यहाँ कलचुरि-चेदि राज्य था, कलचुरियोंके राज्यकालकी बड़ी संख्यामें जैनमुर्तियाँ पाई गई है। इनमेंसे कई भव्यजिनबिंब कुंडलपुर, बहोरीबंद, कटनी, जबलपुर व सतनाके मन्दिरोंमें है । इनमें अधिकतरमें लेख नहीं हैं । ये किस जाति द्वारा स्थापित की गयीं यह ज्ञात नहीं है, वर्तमान यहाँके सभी जैन अन्यत्रसे आकर बसे मालूम होते हैं। केवल बहोरीबंदकी मूर्ति पर गोलापूर्व जातिका उल्लेख है। यह असंभव नहीं है कि पचविसे उन गोलापूर्वोके वंशज हों जो यहाँ प्राचीनकालमें आकर बसे हों।
अधिकतर बनिया जातियाँ श्रेणियोंमें विभक्त हैं। ये उदाहरण द्रष्टव्य हैं । ३,१७ गोलापूर्व : विसविसे, दशविसे (लप्त), पचविसे, बिनैकया। परवार : अष्टशाख, चौसखा, लुहरोसेन (बिनकया)। अग्रवाल : बीसा, दसा, पचा। हूमड : बीसा, दसा । श्रीमाली : बीसा, दसा। ओसवाल : बीसा. दसा, पाँचा, अढ़ाइया । गहोई : बीसा, दसा, पचा। नेमा : बीसा, दसा, पचा। पोरवाल : बीसा, दसा, पाँचा। खंडेलवाल : एक ही श्रेणी ।
लघुश्रेणियोंकी उत्पत्तिके बारेमें कई कहानियाँ कही जाती है। इनका सार यह है। उत्तमश्रेणी बीसा कहलाती, यह अंक पूर्णता या शुद्धताका द्योतक है। जो बीसासे जातिच्युत हुये वे दसा कहलाये । जो ऐसे संबंधकी संतान है जो जातिमान्य नहीं है (विधवा या अस्वीकार्य जातिकी पत्नी) वे लघुश्रेणीके माने जाते है। जिसने लघश्रेणीके साथ व्यवहार रखा. वे भी लघश्रेणीमें माने गये। जो ऐसे स्थानों में जाकर बसे जहाँ जातिका निवास नहीं है उन्हें भी जाति-च्युत माना जाता था। जो दसा श्रेणीसे जातिच्युत हुआ वे पचा कहलाये। परंपरागत रूपसे विवाह अपनी ही श्रेणीमें होता था, पर किसी जातिके पंक्तिभोज (पक्की पंगतमें) में सभी श्रेणियोंको साथ बैठनेका अधिकार रहा है।३.१६ धर्माचरण, मंदिर आदि
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