Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १२१
यदि एक ही क्षेत्रमें बसी दो जातियोंका स्वतंत्र अस्तित्व है तब यह माना जाना चाहिये कि उनमें कुछ अन्तर अवश्य है। पर यदि दो एक जैसी जातियाँ अलग-अलग स्थानोंमें बसी हों, तब यह संभव है कि वे कभी एक ही रही हों । गोलापूर्व जाति गोल्ला देशके दक्षिण-पूर्वी भागमें बसी है, जबकि गोलाराडे जाति उत्तरी भाग में । हो सकता है कि वे एक ही जाति रहो हों व अलग-अलग स्थानोंमें बसनेके कारण अलग-अलग नामोंका प्रयोग करने लगी हों। दोनों जातियोंमें दो-एक गोत्र एक ही है । पर इससे इनका एकत्व सिद्ध नहीं होता । हो सकता है कि एक जातिके कुछ लोग दुसरी जातिके क्षेत्रमें जा बसे हों व उनकी धर्मरक्षाके लिये दुसरी जाति वालोंने उन्हें अपने में मिला लिया हो। इस प्रकारका खंडेलवाल जैनोंके बारेमें सुननेमें आता है । बीजावर्गी जातिमें जैनोंकी संख्या कम होनेसे उन्हें खंडेलवालोंने अपने में मिला लिया । गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंघारे तीनों जातियोंका इक्ष्वाकु वंशसे उत्पन्न कहा गया है, गोलापर्वोको ई० १८५० के द्रोणागिरके लेखमें, गोलालारोंको ई० १४५४ के नागकुमारचरितमें, व गोलसिंघारोंको ई० १६४० के ग्वालियरके एक यंत्र लेख में" । परन्तु इन लेखोंके प्राचीन न होनेसे इन्हें अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता । गोलापूर्व व गोलालारे जातिका ११वी १२वीं शताब्दीसे अलग-अलग अस्तित्व रहा है। ये दोनों जातियाँ कभी एक थीं, ऐसा प्रामाणित नहीं किया जा सकता, पर असम्भव भी प्रतीत नहीं होता । नवलसाह चंदेरियाने जिस गोयलगड़का उल्लेख किया है वह ग्वालियर ही प्रतीत होता है । हो सकता है कि गोल्लापूर्व जाति ग्यारहवीं शताब्दी के कई सौ वर्ष पहले ग्वालियरके आस पास रहती हो व गोलालारे जातिसे इसका कोई सम्बन्ध रहा हो । गोलसिंघारे जाति लघुसंख्यक है ( सन् १९१४ में सिर्फ ६२९) व इनका निवास भिंडके पासमें ही रहा है । इस कारणसे गोलसिंघारे गोलालारोंकी ही शाखा हों, यह सम्भव है।
कुछ लेखकोंने यह संभावना व्यक्त की है कि गोलापूर्व जेन व गोलापूर्व ब्राह्मणोंमें कुछ सम्बन्ध रहा हो१५, १६ । पर यह संभव नहीं लगता । एक ही नामकी कई ब्राह्मण व बनियाँ जातियाँ हैं जो पूर्णतः स्वतंत्र हैं। गोलापूर्व जैनोंमें इक्ष्वाकु जातिसे उत्पन्न होनेकी परंपराके कारण ने ब्राह्मणोंसे उद्भत नहीं लगते । गोलापूर्व ब्राह्मण कृषिसे जीविकोपार्जन करते है, इस कारणसे इन्हें अन्य ब्राह्मणोंसे नीचा माना जाता है। कुछ लेखकोंने इन कारणोंसे इनके ब्राह्मण न होनेकी शंका व्यक्त की है।
१. ये कृषि करते हैं, वेदोंका अध्ययन आदिकी इनमें परंपरा नहीं है। २. इनके गोत्रोंमेंसे बहुतों के नाम ऋषियों पर नहीं, ग्रामों आदिके नामों पर आधारित हैं। ३. इनमें बीसा-दसाका भेद है । ये मांस, प्याज, लहसुन नहीं खाते हैं । इनका यह व्यवहार बनियों
की तरह है।१६
ध्यानसे विचार करने पर यह शंका गलत मालूम होती है। इनका आचार-व्यवहार ठीक सनाढ्य ब्राह्मणों जैसा है व ये उनसे ही उत्पन्न माने जाते हैं। कई जातियों में दोहरी गोत्र परंपरा रही है। एक विभाजन संस्कृत गोत्रों द्वारा होता है व दूसरा देशी-भाषाके । देशी-भाषाके गोत्र अक्सर पुर, मूल आदि कहलाते हैं। बिहारके सकलद्वीपी ब्राह्मणोंमें, पंजाबके सारस्वत ब्राह्मणोंमें व उ०प्र० व बिहारके भुंइहर ब्राह्मणोंमें इसी तरहके दोहरे गोत्र हैं ।३८ व्यवहारमें देशी-गोत्रोंको टालना संस्कृत गोत्रोंको टालनेसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। गोलापूर्व ब्राह्मणोंमें जो स्थान सूचक नाम है, वे देशी-भाषाके गोत्र है। कान्यकुब्ज ब्राह्मणोंमें भी दोहरी गोत्र परंपरा होने के संकेत मिलते हैं । २० दस-बीसा भेद कान्यकुब्ज ब्राह्मणोंमें भी है जो बनियोंके भेदसे भी अधिक सूक्ष्मतासे प्रयुक्त होता है। इनमें 'विश्वा' सिर्फ १० व २० ही नहीं बल्कि ५,७, १८, १९ आदि भी होते हैं। कान्यकुब्जवंश प्रबोधिनी व ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तडमें सभी कान्यकुब्जोंके विश्वा दिये हैं।
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