Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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(ग) जाति में उस स्थानके आस-पास की बोलीका चलन होना ।
(घ) उस स्थानके आस-पास से निकली अन्य समान जातियोंमें पंक्तिभोज या विवाह (द्विविधि या अनुलोम ) की परम्परा ।
(ङ) प्राचीन शिलालेखों या प्राचानी ग्रंथोंसे जातिका निवास उस स्थानके आस-पाससे प्रमाणित होना । (च) अगर उस जाति में स्थान सूचक गोत्र हैं, तो ये गोत्र-स्थान आस-पास होना चाहिये ।
२/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व १०९
इन नियमोंके उपयोगसे गलन निष्कर्षसे बचा जा सकता है। माहेश्वरी जातिके महेश्वर ( इन्दौरके पास ३) अग्रवालोंकी आगरासे उत्पत्तिकी धारणा इनसे गलत प्रमाणित होती है । जैसवालोंकी जैसलमेरसे उत्पत्ति २४ भी गलत है क्योंकि इस जातिका अस्तित्व जैसलमेरकी स्थापना के पूर्व भी शिलालेखोंसे प्रमाणित होता है ।
ऊपर दूसरे नियममें जो पाँच परीक्षण दिये हैं, उसमेंसे किसी एकके सही होने या न होनेसे कोई संभावित मूलस्थान सही या गलत सिद्ध नहीं होता। पर यदि सभी पाँच परीक्षण सही है, तब संभावित मूलस्थान करीब-करीब निश्चित है। किसी जातिको उत्पत्ति कब हुई, इसका निर्धारण करना अधिक कठिन है । अगर किसी जाति की उत्पत्ति किसी ऐतिहासिक घटना के कारण हुई, तब केवल उस ऐतिहासिक घटनाके समयकी गणना करना काफ़ी है। उदाहरण के लिये चमारों में सतनामी जातिको उत्पत्ति घासीदासके उपदेशसे हुई । " सन् १८२५ के आस-पास ओसवाल जातिको उत्पत्ति रत्नप्रभसूरि के उपदेश हुई । रत्नप्रभसूरिका समयका निर्धारण नहीं हो पाया है, पर ५वीं से १०वीं शताब्दीके बीच माना जाता है। अधिकतर जातियों की उत्पत्ति किसी एक विशेष समय नहीं हुई होगी। जो एक ही ही स्थानपर अनेक पीढ़ियोंसे रहते होंगे, उनमें ही सजाति होनेकी अधिकतर जातियोंकी रचना ( evolution) में काफ़ी समय लगा होगा। करीब ७ पीढ़ियों तकका पारिवारिक इतिहास याद किसी नाम से प्रसिद्ध होने में कमसे कम ७ X २० कल्पना उचित है तो किसी जातिका अस्तित्व उसके अवश्य रहा होगा ।
तरहके व्यवसाय, संस्कारके लोग एक भावना हुई होगी । ४२ इस प्रक्रियासे अगर यह माना जाये कि सामान्यतः रखा जाता है, तो किसी भी जातिमें एकत्व आने व उसके १४० वर्षोंका अन्तर माना जा सकता है। अगर यह सबसे पुराने उल्लेखसे कमसे कम डेढ़ सौ वर्ष पहले
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गोत्रोंके सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछा जा सकता है। जातिकी उत्पत्ति पहले हुई या गोत्रोंकी ? गोत्रोंके बिना जातिका अस्तित्व असंभव है । कुछ गोत्र जातिके पहले या जातिके साथ ही उत्पन्न हुये होंगे । कई बार एक ही गाँव में रहने वालोंको एक ही पूर्वजसे उत्पन्न माना जाता है, 30 और उस गाँवके नामसे ही एक गोत्र बन जाता है। गोत्र व्यवसायके कारण भी बनते हैं क्योंकि अक्सर लोग अपना पैतृक व्यवसाय ही सीखते थे ।
ब्रिटिश राज्यके पहले गोलापूर्व जातिको उत्पत्ति के बारेमें एक ही ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है ।२५ मलहरा (जिला छतरपुर) के पास खटौरा ग्राम में नवलसाह चंदेरियाने ई० १७६९ में वर्धमान पुराण की रचना की थी। इसके अन्तिम अधिकार में कविने अपने आत्मपरिचयके सिलसिले में गोलापूर्व जातिके बारेमें काफ़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। इसके अनुसार किसी गोयलगढ़ के निवासी भगवान् आदिनाथ के उपदेशसे श्रावक हुये व गोलापूर्व कहलाये कविने इक्ष्वाकु वंशका उल्लेख किया है, यह स्पष्ट नहीं है कि यह शब्द आदि जिनेश के लिये प्रयुक्त है या गोयलगढ़ के वासियोंके लिये ।
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यहाँ पर कविकी ऐतिहासिक जानकारीकी परीक्षा आवश्यक है जैसा कि आगे प्रमाणित किया
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