Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ , व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८३ पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान माननेके लिए तैयार नहीं प्रतीत होता। एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है और दूसरी ओर दव्यकर्मोदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतर्गति परिभ्रमणमें व्यवहारनयसे बतलाये गये निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूल प्रश्न का उत्तर नहीं मानता। समीक्षा
विद्वान् समीक्षकका ऐसा मानना है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके प्रश्नका जो उत्तर दिया उसकी पुष्टिमें प्रस्तुत की गई समयसारकी ८० से ८२ तककी तीन गाथाओंको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है, उसमें गाथा सं० ८१ का अर्थ इस प्रकार किया है
ण वि कुब्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे ।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि॥ अर्थात जीव कर्ममें विशेषता ( पर्याय ) को उत्पन्न नहीं करता। इसी प्रकार कर्म जीवमें विशेषता ( पर्याय ) को उत्पन्न नहीं करता । परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम जानो।'
किन्तु उत्तरपक्ष द्वारा उपर्युक्त अर्थ करके स्वयं स्वीकृत सिद्धान्तको उपेक्षा की गई है। इस गाथाका अर्थ इस प्रकार होना चाहिए--"जीव कर्मगुणको नहीं करता अर्थात् कर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और कर्म जीवगुणको नहीं करता अर्थात् जीवगुण रूप परिणत नहीं होता। परन्तु परस्परके निमित्तसे दोनोंका परिणाम जानो।
इसी प्रकार समयसारकी गाथा सं० ८२२ एक वस्तुमें अन्य वस्तुके कर्तृत्त्वका निषेध करती है, जो निर्विवाद है किन्तु इस प्रश्नके उत्तरमें इसकी उपयोगिता नहीं है। अन्य प्रमाणोंके विषयमें भी यही कहा जा सकता है।
इस प्रकार उत्तरपक्ष संसारी जीवके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको निमित्तकारण तो मानता है, परन्तु वह वहीं उसे उस कार्यरूप परिणत न होने और उपादानकारणभूत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होने के आधारपर सर्वथा अकिञ्चित्कर ही मानता है जबकि पूर्वपक्ष उस कार्य के प्रति उस उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकमको निमित्तकारण मानता है।
इस प्रकार विद्वान् समीक्षकने प्रथम प्रश्नोत्तरके १८९ पृष्ठोंमें ९९ कथनों द्वारा अलग-अलग समीक्षायें प्रस्तुत करके अपने सैद्धान्तिक ज्ञानको गहनताका परिचय दिया और इस प्रथम प्रश्नोत्तरकी समीक्षाके अन्तमें उपसंहार किया है। द्वितीय प्रश्नोत्तरकी समीक्षा
पर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म मानता है। जबकि उत्तरपक्ष जीवित
१. जयपुर तत्त्वचर्चा, पृष्ठ १ । २. एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ -समयसार ८२ ३. समीक्षा, भाग १, पृ० ९ । ४. वही, पृ० ११ ।
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