Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ९९
यद्यपि ये नय अपने-अपने अंशोंको जब ग्रहण करते-जानते हैं तो उनमें परस्पर विरोध दिखाई देता है और लगता है कि जब वस्तु द्रव्यरूप (शाश्वत) है तब वह पर्यायरूप (अशाश्वत) कैसे हो सकती है ? दोनों ही अंश (द्रव्य और पर्याय) परस्पर विरोधी हैं। वे एक ही वस्तुमें नहीं रह सकते । तब दो विरोधी नयों (द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक) की प्रवृत्ति वस्तुमें सम्भव नहीं है ? किन्तु इन नयोंके विरोधको मिटानेवाला 'स्यात्पद' है, जिसका प्रयोग स्याद्वाददर्शन (आर्हत दर्शन) में अभिप्रेत है। उसके बिना वस्तुसत्यका न कथन हो सकता है और न ज्ञान । आचार्य समन्तभद्रने स्पष्ट कहा है कि अभिप्रेत विशेषकी प्राप्तिके हेतु 'स्यात्कार'का प्रयोग, जो प्रत्येक वाक्यमें अन्तनिहित रहता है, वक्ता चाहे उसे बोले या न बोले, वस्तुसत्यका बोधक है। आचार्य अमृतचन्द्रने भी जिनवचनोंको उभयनयोंमें दिखाई देनेवाले विरोधको मिटाने वाले स्यात्पद' से अंकित बतलाया है। एकान्ती और अनेकान्तीके भाषाप्रयोग (कथन) में यही अन्तर बतलाया गया है । तात्पर्य यह कि द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक तथा उनका समूह ज्ञेय वस्तुका यथार्थ ज्ञान करानेके लिए उपदिष्ट है।
द्वितीय प्रकारसे निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंका निरूपण किया गया है। निश्चयका अर्थ परमार्थ, वास्तविक, भूतार्थ, परसंयोगसे रहित है और व्यवहारका अर्थ उपचार, अवास्तविक, अभूतार्थ, परसंयोगसे सहित है। विश्व षड द्रव्यात्मक है। उनमेंसे एक चेतन द्रव्य--आत्मा उपादेय है और बाकीके सब हेय । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन छह द्रव्योंमें जोव चेतन द्रव्य है, शेष पाँचों द्रव्य अचेतन है। जीवका पदगल (कर्म और नोकर्म) के साथ अनादि सम्बन्ध है, जिसके कारण जीव उससे प्रभावित है । आचार्य अमृतचन्द्रने स्पष्ट लिखा है कि यद्यपि जीव शुद्ध चित् (चेतन) मात्रकी मूर्ति है । परन्तु उसमें जो पररूप परिणति हो रही है उसका निमित्तकारण मोहनीय नामके कर्मका उदय है। इस मोहनीय कर्मके उदयसे ही निरन्तर (अनादि कालसे) वह उत्पन्न राग-द्वेषादिसे कलुषित (विकृत) है। इसीसे जीव कर्म और नोकर्मसे बद्ध तथा स्पृष्ट है। यह संयोगी अवस्था है और वह उपादेय नहीं है--हेय है । निश्चयनय यही बतलाता है । वह जीवकी निज परिणति–रागादिरहित चैतन्यपरिणतिको ही उपादेय कहता है । उसकी दृष्टिमें जीवमें न कर्म है, न नोकर्म है और न उनके निमित्तसे होनेवाले राग-द्वेष-क्रोध-मान-मायालोभ आदि परिणमन हैं। किन्तु कर्म और नोकर्मका सम्बन्ध जीवके साथ है और उनके निमित्तसे उसीमें रागादि परिणमन होते हैं, यह अयथार्थ नहीं है, यथार्थ है । अतएव जीव बद्ध है, स्पृष्ट है, अशुद्ध है और अज्ञ है। यह व्यवहारनय बतलाता है। इसीसे जैन दर्शन स्याद्वाददृष्टिसे हर वस्तुको, जो अनेकान्तात्मक है, स्वीकार करता है । अकलंकदेवने लिखा है कि अनेकान्तकी प्रतिपत्ति प्रमाण है, एक धर्मकी, जो अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखे-उनका तिरस्कार न करे, प्रतिपत्ति नय है और एक धर्मको स्वीकार कर वस्तुके शेष धर्मोका प्रतिक्षेप (तिरस्कार) दुर्नय है। यह कथन उन्होंने समन्तभद्रस्वामीके द्वारा प्रतिपादित नयलक्षणके व्याख्यान
१. 'अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलांछनः ॥'-आप्तमी० ११२ । २. उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ, जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैः, अनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।-समयसार कलश ४ । ३. परपरिणतिहतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः ।।
मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ।। स० सा० कलश ३ । ४. 'अनेकान्तप्रतिपत्तिः प्रमाणमेकधर्मप्रतिपत्तिर्नयस्तत्प्रत्यनीकप्रतिक्षेपो दुर्नयः, केवलविपक्षविरोधप्रदर्शनेन
स्वपक्षाभिनिवेशात'-अष्टश०, आप्तमी० का० १०६ की व्याख्या ।
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