Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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... ९२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
कारणभूत बाह्यसामग्रीको महत्त्व देते हैं । परन्तु सोनगढ़ी स्व-परप्रत्यय पर्यायकी उत्पत्तिमें उपादानकारणभूत अन्तरंग सामग्रीको महत्त्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्रीको महत्त्व न देकर उस देश और कालको महत्त्व देते हैं जहाँ और जिस कालमें पर्यायकी उत्पत्ति हुई थी, हो रही है या होगी। अर्थात् देश-कालको नियामक मानते हैं । परन्तु पुरातन सिद्धान्ती देश-कालको कार्योत्पत्तिमें उपयोगी नहीं मानते हैं। कार्यकारणभाव अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर उपादान और निमित्तसामग्रीके साथ ही मानते हैं। यही दोनोंमें भेदका हेतु है। केवलज्ञानको विषय-मर्यादा
इसके अतिरिक्त पूर्ण क्षायिक केवलज्ञानमें संयुक्त या बद्ध पदार्थोंका प्रतिभासन संयुक्त या बद्ध दशामें संयुक्त या बद्ध रूपसे न होकर पृथक्-पृथक् रूपसे होता है परन्तु मति, अवधि और मनःपर्ययज्ञानोंमें बद्ध पदार्थोंका ज्ञान बद्ध रूपसे ही होता है। अतः सभी जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध होते हुए भी जब केवलज्ञानमें सतत् अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता या पर्यायरूपता-सहित पृथक्-पृथक् ही प्रतिभासित हो रहे है तो उस स्थितिमें उन पदार्थों की संयुक्तदशाका एवं जीव-पुद्गलकी बद्धदशाका प्रतिभासन केवलज्ञानमें नहीं हो सकता है। केवलज्ञानमें जब प्रतिक्षण पदार्थोंकी पृथक्-पृथक् रूपताका प्रतिभासन हो रहा है तो उनकी अवास्तविक दशाका प्रतिभासन संभव नहीं। अतः केवलज्ञानके प्रतिभासन हेतुसे 'स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी क्रमबद्धतामात्र सिद्ध नहीं होती है।' यह केवलज्ञानकी विषय-मर्यादा कहाँ तक आगमोचित है-इसका पं० श्यामसुन्दरलाल शास्त्रीने अपने प्राक्कथन ( ५०२ ) में संकेत किया है। वस्तुतः केवलज्ञानको विषयमर्यादाके संदर्भ में विद्वान् लेखकने जो अपना पक्ष दिया है वह विद्वानोंके लिए अधिक विचारणीय है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि जिसके क्रोध कषायका उदय चल रहा है वही चलते रहना चाहिए, क्योंकि सोनगढ़ सिद्धान्तमें पर्यायोंकी क्रमबद्धता है। किन्तु देखा जाता है कि निमित्त मिलते ही उस व्यक्तिके क्रोधकषाय रुककर क्षमाकी धारा प्रवाहित होने लगती हैं। इससे स्पष्ट है कि पर्यायें क्रमबद्ध भी है और अक्रमबद्ध भी हैं। निमित्तको अकिंचित्कर नहीं कहा जा सकता और न प्रत्यक्ष दृष्टका अपलाप किया जा सकता है । अग्नि जल रही है और पानी डालते ही वह बुझ जाती है। स्पष्ट है उसका क्रमबद्ध परिणमन रुककर अक्रमबद्ध परिणमन ( विजातीय शान्त परिणमन ) हो जाता है। अग्निके दाहपरिणामसे विजातीय अदाह परिणाम होने लगता है। यह निमित्तभूत जलका ही प्रभाव है। फिर कैसे वह अकिचित्कर है? और कहाँ पर्याय क्रमबद्ध रही ? । __इस तरह सूक्ष्मदर्शी विद्वान्ने, जो न केवल वैयाकरण ही हैं अपितु एक अच्छे आगमज्ञ और दार्शनिक भी हैं, युक्ति और आगमके द्वारा पर्यायोंकी क्रमबद्धता और अक्रमबद्धताको सिद्ध किया है। ऐसा मानना ही अनेकान्तसिद्धान्तके अनुकूल है। इसके अतिरिक्त विद्वान् लेखकने प्रसङ्गानुकूल पुद्गलोंका आवश्यक सूक्ष्म विवेचन भी प्रस्तुत पुस्तकमें किया है।
१. मूलग्रन्थ, पृ० ७-९ २. वही, पृ० २४-३१,३५ ।। ३. वही, पृ० ३१-३४॥
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