Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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८२: सरस्वती वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
उपस्थितिमें चर्चा-विषयक नियमोंमें ट्वाँ नियम यह भी स्वीकृत किया गया कि चर्चा में सामाजिक, पंथ तथा व्यक्तिके सम्बन्ध में कोई चर्चा न होगी ।
चर्चा आ० पं० मक्खनलालजी शास्त्री द्वारा निम्नलिखित विषय प्रस्तुत किये गये -
१. द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति होता है या नहीं ?
२. जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ?
३. जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
४. व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं ?
५. द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे ही होती हैं या अनियतक्रमसे ?
६. उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ?
यद्यपि मूल ग्रन्थ दो भागों ( पुस्तकों) में जयपुरसे प्रकाशित हुआ है । अतः इनकी समीक्षा भी दो भागों – पुस्तकोंमें लिखी गयी है । किन्तु अभी तक इसका प्रथमभाग प्रकाशित हुआ है । दूसरा भाग लगभग तैयार है और प्रकाशनकी प्रतीक्षा में है ।
प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम भागमें अनेक प्रतिशंकाओं सहित निम्नलिखित चार शंकाओंके किये गये समाधानों की सभी शास्त्रीय प्रमाणों सहित समीक्षा प्रस्तुत की गई है -
शंका १– द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ? शंका २ - जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ?
शंका ३ - जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
शंका ४ - व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं ?
प्रस्तुत ग्रन्थके इस खण्डमें इन चारों प्रश्नोत्तरोंकी समीक्षा के चार-चार प्रकरण निर्धारित हैं(१) सामान्य समीक्षा, (२) प्रथम दौरकी समीक्षा, (३) द्वितीय दौरकी समीक्षा, (४) तृतीय दौरकी समीक्षा । प्रथम प्रश्नोत्तर और इसकी समीक्षा
पूर्वपक्ष द्वारा प्रस्तुत "द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुरांतिभ्रमण होता है या नहीं ? — इस प्रथम प्रश्नका समाधान उत्तरपक्षने संक्षेपमें इस प्रकार प्रस्तुत किया कि " द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमणमें व्यवहारसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृकर्म सम्बन्ध नहीं है ।
यह समाधान पूर्वपक्षको पूर्ण प्रतीत नहीं हुआ तो अपने प्रश्नको समझाते हुए पूर्वपक्ष ने कहा कि हमारे प्रश्नका आशय यह था कि जीवमें जो क्रोध आदि विकारी भाव उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष देखे जाते हैं क्या वे द्रव्यकर्मोदय के बिना होते हैं या द्रव्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं ? संसारी जीवका जो जन्म-मरणरूप चतुर्गतिभ्रमण प्रत्यक्ष दखाई दे रहा है क्या वह भी कर्मोदयके अधीन हो रहा है या यह जीव स्वतंत्र अपनी योग्यतानुसार चतुर्गतिभ्रमण कर रहा है ?
प्रथम प्रश्नके इस स्पष्टीकरण पर उत्तरपक्षने कहा कि इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तर में ही हम यह बतला आये हैं कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमण में द्रव्यकर्मका उदय निमित्तमात्र | विकारभाव और चतुर्गति-परिभ्रमणका मुख्यकर्ता तो स्वयं आत्मा ही है। इस तथ्यकी पुष्टिमें हमने समयसार, पंचास्तिकायटीका, प्रवचनसार और उसकी टीकाओंके अनेक प्रमाण दिये हैं । किन्तु पूर्वं
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