Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
८४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है । अतः पूर्वपक्षने निम्नलिखित प्रश्न रखा।
पूर्वपक्ष-जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ?
उत्तरपक्ष- जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गलद्रव्यकी पर्याय होनेके कारण उसका अजीवतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है अतः वह स्वयं जीवका न तो धर्मभाव है और न अधर्मभाव ही है।'
आ० पं० जीने उत्तरपक्षके कथनका विस्तृत विश्लेषण किया है। वस्तुतः जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकारकी होती है-प्रथम जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया तथा द्वितीय शरीरके सहयोगसे होने वाली जीवकी क्रिया। इन दोनोंमेंसे पूर्वपक्षके प्रश्नका सम्बन्ध शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियासे है, क्योंकि धर्म और अधर्म ये दोनों जीवकी हो परिणतियाँ हैं और उनके सुख-दुःखरूप फलका भोक्ता भी जीव ही होता है । अतः जिस जोवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं उसका कर्ता जीवको मानना ही युक्तिसंगत है, शरीरको नहीं।
विद्वान् समीक्षकका ऐसा मानना है कि उत्तरपक्षने जो प्रश्नोत्तर दिया है उससे उत्तरपक्षका यह मान्यता ज्ञात होती है कि वह जोवित शरीरकी क्रियाको मात्र पुद्गलद्रव्यकी पर्याय मानकर उसका अजीवतत्त्वमें अन्तर्भाव करके उससे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेका निषेध करता है। उत्तरपक्षकी इस मान्यतामें पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा तो कुछ विरोध नहीं हैं, परन्तु आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति पूर्वपक्ष द्वारा कारणरूपसे स्वीकृत शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाकी अपेक्षा विरोध है।
उत्तरपक्ष यदि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसे पुद्गलद्रव्यकी पर्याय मानकर उसका अजीवतत्त्वमें अन्तर्भाव करे तथा उसको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारण न माने तो उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मामें धर्म और अधर्मकी उत्पत्तिका आधार क्या है ? किन्तु उत्तरपक्ष के पास इसका कोई उत्तर नहीं है । पर पूर्वपक्षके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि यह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्मके प्रति कारणरूपसे आधार मानता है। .
इस प्रकार द्वितीय प्रश्नोत्तरको विस्तृत समीक्षा यहाँ की गई है। द्वितीय प्रश्नका उत्तर तीन दौरोंमें सम्पन्न हुआ था। यहाँ इन सबकी तथा साथ ही सत्रह कथनों द्वारा उनकी समीक्षा की गई है। तृतीय प्रश्नोत्तरकी समीक्षा
पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
उत्तर पक्ष-(क) इस प्रश्नमें यदि 'धर्म' पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदयाकी परिगणना शुभपरिणामों में की गई है और शुभ परिणामको आगममें पुण्यभाव माना है । परमात्मप्रकाशमें भी कहा है
सुहपरिणामें धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु । दोहिं वि एहि विवज्जियउ सुधु ण बंधइ कम्मु ॥२-७१॥
१. जयपुर तत्त्वचर्चा, पृ० ७६ । २. समीक्षा, भाग १, पृ० १९० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org