Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था : एक अनुशीलन •श्री नीरज जैन, सतना
वस्तुस्वरूपकी विवेचनामें कारकव्यवस्थाका सर्वोपरि महत्त्व है। वास्तवमें जिस प्रकार एकपर एक घड़े रखकर मंगल अवसरपर स्वागत-द्वार बनाया जाता है, उसमें यदि पहला घड़ा उल्टा रख दिया जाय, तो फिर उसपर उल्टे ही घड़े रखे जा सकेंगे। एक भी सीधा घड़ा उल्टे घड़ेपर नहीं बिठाया जा सकता, उसी प्रकार यदि कारकव्यवस्थाके समझने में कोई भल रह जाय तो वस्तुस्वभावके बारेमें विपरीत अनुमान ही लगते चले जायेंगे और उनपर आधारित विपरीत मान्यतायें ही चिंतकके मनमें बनती चली जायेंगी। ऐसे मनमें सम्यक् धारणाके लिये फिर कोई अवकाश ही नहीं होगा। इसलिये वस्तु-स्वरूपको किसी भी विवक्षाको समझनेके लिये कारकव्यवस्थाका सही ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।
"जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था" नामकी छोटी-सी पुस्तकमें श्रीमान् पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने सर्वप्रथम कारक-व्यवस्थापर हो विचार किया है । आचार्य अमृतचन्द्रजी महाराजके उद्धरण देकर उन्होंने भली-भाँति 'स्व-प्रत्यय' और 'स्वपर-प्रत्यय' परिणमनकी सिद्धि करते हुए तर्कके आधारपर इस बातका निषेध किया है कि एक ओर जहाँ मात्र ‘पर-प्रत्यय' कोई कार्य नहीं होता, वहीं दूसरी ओर 'स्वपर-प्रत्यय' कार्यको मात्र 'स्व-प्रत्यय' मान लेना भी आगमकी अवहेलना होगी। स्वपर-प्रत्ययरूप अशुद्ध या वैभाविक परिणमनको पारिणामिक भावकी तरह परनिरपेक्ष और स्वाभाविक परिणाम नहीं माना जा सकता।
तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्यका विवेचन करते हए “सत्-द्रव्यलक्षणम्' के साथ 'उर गद-व्यय-ध्रौव्ययक्तं सत" सूत्र कहा गया है। इसमें कहीं भी यह शर्त नहीं जोड़ी गई कि वह उत्पाद-व्यय किसी निमित्तका मुखापेक्षी होगा या निमित्तके लिए कभी वह परिणमन रुका रहेगा। इन सूत्रोंका अर्थ करते समय आचार्योंने उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप परिणमनपर विस्तारसे विचार किया है। सूत्र में छहों द्रव्योंके स्वाभाविक परिणमनकी बात सामान्यसे कही गई है । छहों द्रव्योंका शुद्ध या स्वाभाविक परिणमन तो होता ही है, परन्तु उनमेंसे जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंका अशुद्ध या वैभाविक परिणमन भी होता है । वास्तवमें इसी वैभाविक परिणमनका नाम ही संसार है । यदि इस वैभाविक परिणमनको भी वस्तुकी पर-निरपेक्ष, स्वाभाविक परिणति मान लिया जायगा तो शुद्ध जीवके पुनः अशुद्ध होनेका प्रसंग आ सकता है, जो जैन दर्शनको स्वीकार्य नहीं है। इस विसंगतिसे बचनेके लिये आचार्योंने द्रव्यके परिणमनको दो रूपोंमें व्याख्यायित किया है। एक "स्वप्रत्ययपरिणमन" और दूसरा 'स्वपर-प्रत्यय परिणमन'।
मोटे रूपमें हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि द्रव्यका जो भी शुद्ध परिणमन है वह मात्र "स्वप्रत्यय" होता है । उसमें किसी दूसरे निमित्तकी आवश्यकता नहीं है, परन्तु जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें होनेवाला अशुद्ध या वैभाविक परिणमन एक-दूसरेके सहकारके बिना सम्भव नहीं है । बिना दूसरेके-निमित्तके वैभाविक परिणमन कर सकें उनमें ऐसी शक्ति नहीं है, क्योंकि वैसा द्रव्यका स्वभाव नहीं है। अतः सिद्ध है कि यद्यपि द्रव्य हमेशा अपनी नित्य उपादानशक्तिसे ही परिणमन करेगा। परन्तु अशुद्ध परिणमनके लिए तो परका सहकार उसे अनिवार्य होगा। इसलिये ऐसे परिणमनको "स्वपर-प्रत्यय परिणमन" कहा गया है। कार्य-कारणभाव
व्याकरणाचार्यजीने द्रव्यके परिणमनकी इस शुद्ध और अशुद्ध व्यवस्थाको कार्यकारणसम्बन्धके आधार
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