Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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७४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
निश्चयनय और व्यवहारनयके समान निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयके सम्बन्धमें भी जैनतत्त्वमीमांसामें भ्रान्त धारणा अपनाई है। आप लिखते हैं
"इस जीवको निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति होनेपर व्यवहाररत्नत्रय होता ही है। उसे प्राप्त करनेके लिये अलगसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता है । व्यवहाररत्नत्रय स्वयं धर्म नहीं है। निश्चयरत्नत्रयके सद्भावमें उसमें धर्मका आरोप होता है, इतना अवश्य है। इसी प्रकार रूढ़िवश जो जिस कार्यका निमित्त कहा जाता है, उसके सद्भावमें भी तबतक कार्यकी सिद्धि नहीं होती, जबतक जिस कार्यका वह निमित्त कहा जाता है, उसके अनुकूल उसके उपादानकी तैयारी न हो। अतएव कार्यसिद्धिमें निमित्तोंका होना अकिंचित्कर है।"
व्याकरणाचार्यजीने इस भ्रान्त मान्यताकी मीमांसा करते हुए आचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्री और आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डसे उद्धरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि इन आचार्योंने निमित्तकारणकी अकिंचित्करताके विरोध और उसकी कार्यकारिताके समर्थन में ही अपना अभिमत प्रकट किया है। इससे यह बात निर्णीत होती है कि कार्य यद्यपि उपादानगत योग्यताके आधारपर ही होता है, परन्तु निमित्तकारणके सहयोगसे ही होता है । अतएव कार्योत्पत्तिमें निमित्त आकिंचित्कर न होकर कार्यकारी ही होता है। स्वपरप्रत्यय कार्य उपादानगत निजी योग्यताके आधारपर होते हुए भी निमित्तकारणके सहयोगसे होता है ।
इसी प्रकार निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयके सम्बन्धमें भी व्याकरणाचार्यजीका अभिमत निर्धान्त है। आप लिखते है:-"यद्यपि निश्चयरत्नत्रयसे ही जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है, परन्तु उसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति व्यवहाररत्नत्रयके आधारपर ही होती है। इस तरह मोक्षके साक्षात् कारणभूत निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्किा कारण होनेसे व्यवहाररत्नत्रयमें भी परम्परया मोक्षकारणता सिद्ध हो जाती है। अतः मोक्ष-कार्यके प्रति व्यवहाररत्नत्रय भी अकिंचित्कर न होकर कार्यकारी ही सिद्ध होता है।" उपसंहार
प्रस्तुत निबन्धमें हमारा काम पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी बहुचर्चित पुस्तक 'जैनतत्त्वमीमांसा'की मीमांसा करना नहीं है। उसकी शल्यक्रिया तो पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने कर दी है। हमारा काम तो उस शल्यक्रियाको मीमांसा करना है क्या शल्यक्रिया वैज्ञानिक पद्धतिसे की गई है ? उपकरण आयुर्विज्ञान सम्मत काममें लाये गये हैं ? शल्यक्रिया सफल हुई या असफल ? और विकृत अंश एवं विकारोंको शल्यक्रिया करनेसे छोड़ा तो नहीं गया? यदि एक वाक्यमें, शब्दोंकी कंजूसी करते हुए, मैं कहना चाहूँ तो कह सकता है कि शल्यक्रिया सर्वांशतः सफल रही है। और यदि मुझे क्षमा किया जाय तो दोनों आदरणीय विद्वानोंके प्रति सम्पूर्ण आदरके भाव रखते हुए यही कह सकता हूँ कि पण्डित फूलचन्द्रजी कानजी स्वामीकी मान्यताओंकी पैरबी करनेवाले वकीलके रूपमें उभरे हैं। सिद्धान्तग्रन्थोंके समर्थ टीकाकारके रूप में उनकी जो छबि समाजने देखी थी, वह छवि इस पुस्तकसे निखरी नहीं। दूसरी ओर अज्ञातवासमें पड़े हए पण्डित बंशीधरजी उक्त पुस्तककी मीमांसा करके, उसके एक-एक वाक्यका, एक-एक नवकल्पित प्रस्थापनाका युक्ति और शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा उत्तर देकर आर्षपरम्पराके सजग प्रहरीकी छवि बनाने में सफल हुए हैं। विषयकी गहरी पकड़, तर्कमें पैनापन, विषयको प्रस्तुत करने योग्य समुचित शब्दावली और कथ्यको शास्त्रीय आधार देनेकी तत्परता व्याकरणाचार्यजीकी अपनी विशेषता है । वे आर्षपरम्पराके कट्टर समर्थक, गहन तत्त्वचिन्तक और सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान् है, उनकी पुस्तक पढ़नेपर पाठकके मनपर सहज ही यह छाप पड़ती है। वे समाजसे हर प्रकारका सम्मान पानेके अधिकारी हैं।
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