Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
ज्ञातव्य है कि सन् ५३ में संस्थाका जो चुनाव हुआ, उसमें गोलालारीय समाजका योग्यतम व्यक्ति अध्यक्ष चुना गया और गोलापूर्व होते हुए भी मुझे मंत्री चुना। इसपर खुरई (सागर) की परवार समाजने बीनाकी परवार समाजके प्रति कहा कि बीनामें परवार समाजका बाहुल्य होनेपर भी गोलालारीय समाजके व्यक्तिको अध्यक्ष और गोलापूर्व समाजके व्यक्तिको मंत्री निर्वाचित करना बोनाकी परवार समाजकी अयोग्यता सूचित करता है। पर इसका कुछ भी प्रभाव बीनाकी समग्र समाजपर नहीं पड़ा और सन् ७१ तक यहाँकी समाजका ऐसा ही दृष्टिकोण बना रहा।
_ किन्तु सन् ७१ में संस्थाका जो चुनाव हुआ, तो परवार समाजके कुछ प्रमुख व्यक्तियों द्वारा तीनों समाजोंमें भेदकी नीति अपनाई गई। इससे मुझे ग्लानि हुई और मैंने संस्थासे ही त्यागपत्र दे दिया। खेद यही है कि हम छोटे-छोटे भेदोंमें उलझ जाते हैं और सम्पूर्ण समाजके ऐक्यके उदार
दृष्टिकोणको त्याग देते हैं । यह हमारो संकुचितताका ही दोष है।। को०: क्या आप अन्य संस्थाओंसे भी संबद्ध रहे हैं ? व्या० : हाँ, मैं कई अन्य संस्थाओंसे भी संबद्ध रहा हूँ। उनमें मुख्यरूपसे दो संस्थायें हैं-(१) श्री गणेश
प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला और (२) अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषद । वर्णी जैन ग्रन्थमालाके स्थापनाकालसे ही मैं उसका मंत्री रहा और पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री उसके सहायक मंत्री रहे । पर बादमें उनसे मतभेद हो जानेके कारण मैंने संस्थाके मंत्री पदसे त्यागपत्र दे दिया । पं० फूलचन्द्रजीके सुझावके अनुसार ग्रन्थमालाको ५० पन्नालालजी साहित्याचार्यके व्यवस्थापकत्वमें सागर भेज दिया गया। पर कुछ कारणोंसे उन्होंने उसे पुनः वाराणसी वापिस बुला लिया। इसके पश्चात डॉ० दरबारीलाल कोठियाको उसका मंत्री बनाया गया। डॉ० कोठियाने उसे काफी समुन्नत बनाया। परन्तु ऐसी परिस्थितियोंका निर्माण हआ कि उन्हें भी ग्रन्थमालाके मंत्रित्वसे त्यागपत्र देना पड़ा।
दूसरी संस्था भा० दि० जैन विद्त्परिषद्का भी मैं कई वर्षतक मंत्री रहा और सन् १९६५ में हए सिवनी अधिवेशनका अध्यक्ष चुना गया। श्रावस्तीमें हए उसके नैमित्तिक अधिवेशनका भी अध्यक्ष मैं ही रहा । मुझे प्रसन्नता है कि मेरे अध्यक्षकालमें गुरु गोपालदास शताब्दि-समारोह
विद्वत्परिषद्ने साहू शान्तिप्रसादजी जैनकी अध्यक्षतामें दिल्लीमें मनाया और गुरु गोपालदास वरैया - स्मृति-ग्रन्थका प्रकाशन भी इस अवसरपर उसने किया । विद्वत्परिषदके ये दोनों कार्य स्मरणीय रहेंगे। को० : आपकी स्फुट प्रवृत्तियाँ और भी रही होंगी, उनके सम्बन्धमें कृपया दिशा-निर्देश करें ? व्या० : मेरी कुछ स्फुट प्रवृत्तियाँ भी रहीं। उदाहरणार्थ-जब पं० फूलचन्द्रजी सि० शा० नाते-पोते
(सोलापुर) में कार्य कर रहे थे, तब वहाँकी समाजने 'शान्ति-सिन्धु' नामसे एक मासिक पत्र निकालनेका निर्णय लिया। उसका सम्पादक पं० फुलचन्द्रजीको और उपसंपादक मुझे बनाया गया। सनातन जैन समाजकी ओरसे प्रकाशित होनेवाले 'सनातन जैन' मासिकपत्र का भी सम्पादक कई
वर्षों तक रहा । यह पत्र बुलन्दशहरसे निकलता था और उसके प्रकाशक थे श्री मंगतराय 'साधु' । को० : सोनगढ़ और उसकी विचारधाराके प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है ? आज उसकी सर्वाधिक चर्चाका
कारण क्या है ? व्या० : श्री कानजी स्वामीके आग्रहसे सोनगढ़में सन् १९४७ में अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद्का अधि
वेशन बलाया गया था और अधिवेशनके अध्यक्ष 4. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री निर्वाचित हुए
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