Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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________________ 62 : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ सन् 1965 में आप भा० दि. जैन विद्वत्परिदके अध्यक्ष चुने गये। फरवरी मासमें सिवनीमें आपकी अध्यक्षतामें विद्वत्परिषद्का अधिवेशन हआ। उस समय आपने श्रीमान् कोठियाजीको लिखा कि वाराणसीके सब विद्वानोंको साथ लेकर सिवनी आओ। कोठियाजी आदि विद्वानोंके साथ मैं भी सिवनी गया। विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणो समितिके चुनावके समय सिवनी अधिवेशनमें आपने मुझे विद्वत्परिषद्का संयुक्तमंत्री बना लिया / और प्रसन्नता है कि कुछ वर्षों तक विद्वत्परिषद्के संयुक्तमंत्री पदपर रहकर कार्य करनेका मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। __ आप हित, मित और प्रियभाषी है। जब आप विद्वत्परिद्के अध्यक्ष थे तब आपने स्नेहपूर्वक एक दिनके लिए बीना बुलाया। उस समय आपने अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण चर्चा की थी तथा मुझे भी अनेक परामर्श दिये थे / आपका स्नेहपूर्ण आतिथ्य तो सदा स्मरणीय रहेगा। आप श्रीमान कोठियाजीके आदरणीय चाचाजी है। इसलिए आप जब कभी कोठियाजोके यहाँ वाराणसी आते थे तब आपसे मिलकर परम प्रसन्नता होती थी। अप्रैल सन् १९८७में ललितपुर में श्रद्धेय डॉ० कोठियाजीके कुलपतित्वमें हई जैन न्याय-विद्यावाचनाके समय भी आपसे मिलनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था। __ हर्ष है कि ऐसे महान् विद्वान्की सार्वजनिक सेवाओंके उपलक्ष्यमें उन्हें अभिनन्दनग्रन्थका समर्पित किया जाना एक अत्यन्त स्तुत्य कार्य है / इस सुखद अवसरपर उनकी दीर्घायुकी कामना करता हुआ उन्हें अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ / बीसवीं सदीके गम्भीर-दार्शनिक विद्वान् * प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, स्नातकोत्तर संस्कृत-प्राकृत विभाग, ह° दा० कालेज, आरा जो स्वतन्त्र मौलिक विचारोंके धनी तथा स्वाभिमानी प्रवृत्तिके विद्वान् होते हैं, वे किसीके आदेशनिर्देश और पराधीनताको स्वीकार नहीं करते। अमेरिकाके एक महान दार्शनिक इमर्सनके विषयमें कहा जाता है कि उसने नगरसे दूर एक जंगली-सरोवरके किनारे एक झोपड़े में रहना और अपनी आजीविकाके लिए छोटा-मोटा कृषि कार्य करते हुए तत्त्व-चिन्तन एवं लेखनकार्य तो पसन्द किया, किन्तु राजकीय-सेवा या अन्य संस्थाओंकी पराधीनतापूर्ण सेवामें रहना पसन्द नहीं किया। यही स्थिति है हमारे मनस्वी महापण्डित श्रद्धेय 50 वंशीधरजी शास्त्री व्याकरणाचार्यको भी। श्रद्धेय पण्डितजी जैनेतर व्याकरणाचार्योंमें प्रथम पंक्तिके तथा जैन समाजमें व्याकरणाचार्योंका खाता खोलनेवाले आद्य व्याकरणाचार्य है। न्यायाचार्य, साहित्याचार्य एवं सर्वदर्शनाचार्य आदि तो जैन समाजमें अनेक तैयार हुए, किन्तु व्याकरणाचार्य इने-गिने ही मिलेंगे / उसका मूल कारण है कि वह विषय प्रायः सभीको नीरस एवं दुरूह लगता है / इस कारण बहुत कम लोगोंकी गति उसकी ओर हो पाती है। पण्डितजीके जीवनका जब यह दृढ़ संकल्प बना कि यदि समाजको ठोस सेवा करनी हो तो समाजके वेतन-भोगी सेवक मत बनो। उन्होंने वहीं किया भी। समाजके प्रतिष्ठित पदोंको प्राप्त करनेका उन्होंने कभी प्रयत्न नहीं किया। उसके बदले में उन्होंने बीना (सागर) जैसे छोटे-से नगरको ही अपनी कर्मभूमि मानकर वहीं पर कपड़ेके छोटे-से व्यापारको अपने परिवारकी आजीविकाका साधन बनाया तथा व्यापारिक कार्योंसे बचे हुए समयको अपने स्वाध्याय एवं प्रवचन में लगाया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org