Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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________________ 66 : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सहृदयतापूर्ण है / जिज्ञासुकी समझमें न आनेपर वे खिन्न और उदासीन नहीं होते, अपितु बार-बार स्नेहपूर्वक समझाते हैं। मैंने उनसे कतिपय प्रश्नोंपर बहशः प्रश्न किये, किन्तु एक भी बार उत्तप्त नहीं हुए और बड़े शान्तभावसे बार-बार समझाते रहे / जिज्ञासुको सत्यकी अनुभूति करा देनेको कितनी उत्कट भावना है है पण्डितजीमें, यह मैंने अनुभव किया। पिछले कुछ वर्षोंसे जैन समुदायमें जो एकान्तवादी विचारधारा चल पड़ी है और पूज्य वर्णीजीके द्वारा स्थापित संस्थाओंमें अध्ययन करनेवाले पण्डितजनोंने भी उसमें शामिल होकर सिद्धान्तोंका आगमविरुद्ध प्रतिपादन किया है, उससे व्याकरणाचार्यजीको जितना खेद है उतना शायद किसी अन्य विद्वान् को हो / 'जयपुर (खानिया) चर्चा में आगमसम्मत विचारधाराकी पुष्टि करनेवाले विद्वानों में व्याकरणाचार्यजी प्रमुख थे। प्रतिपक्षने उक्त चर्चाका विवरण 'जयपुर तत्त्वचर्चा' नामसे दो ग्रन्थभागोंमें प्रस्तुत किया है। इसमें प्रतिपक्षने अपनी एकान्तवादी विचारधाराको ही सही ठहराया है। इसकी समीक्षा हेतु अनेक ग्रन्थोंकी रचनाका परमावश्यक, श्रमसाध्य एवं प्रशंसनीय कार्य व्याकणाचार्यजीने ही किया है / सत्यका आग्रह भगवान महावीर और महात्मा गाँधीका सच्चा अनुयायी ही कर सकता है। उसे लौकिक हानियोंकी परवाह नहीं होती। पण्डितजीने जिनवाणीकी जो प्रभावना को है वह स्वर्णाक्षरोंमें लिखी जाने योग्य है। पण्डितजीके प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा इसलिए है कि उनमें कोरा पाण्डित्य नहीं है। उनके पास एक मृदु तथा वात्सल्यसे परिपूर्ण निर्भय हृदय भी है, जिससे उनका पाण्डित्य सफल हआ है। पण्डितजी दीर्घायु हों और स्वस्थ रहें, इस कामनाके साथ उन्हें मेरे कोटिशः नमन एवं श्रद्धा-सुमन समर्पित हैं। स्वाभिमानी विद्वान * डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर, अध्यक्ष, पालि-प्राकृतविभाग, नागपुर वि० वि० नागपुर 'सोरई' जैसे दूर-दराज़ गाँवमें जन्मे व्यक्तित्वने टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियोंपर चलकर वाराणसी में ज्ञानसाधना की और राष्ट्रीय तथा सामाजिक आन्दोलनोंके कठोर झंझावातोंमें झूलते हए, बीनाको अपना स्थायी निवास स्थान बनाया / इस लम्बी यात्राने उन्हें अनेक पड़ाव दिये, चिन्तन-मन्थन करनेके लिए और उसका निष्यन्द निकला स्वतन्त्रतापूर्वक अजीविकोपार्जन / इस निश्चयकी पृष्ठभूमिमें थी पं० जीकी स्वाभिमानी वृत्ति और आत्मविश्वासी प्रवृत्ति / वृत्ति और प्रवृत्तिके बीच घूमता हुआ उनका मानस तेजस्वी व्यक्तित्व, कभी थका नहीं, बल्कि अविराम नैतिक पथका निष्प्रमादी, परिश्रमो, पुरुषार्थी पथिक बनकर उसने विद्वानोंको श्रेणीमें अग्रगण्य बननेका सौभाग्य पाया / ___ स्वाभिमानी, पर अभिमानसे दूर, व्यापारी, पर लिप्सासे मुक्त, अध्यवसायी, पर कठघरोंसे कटे हुए पण्डिजीके व्यक्तित्वने नई पीढ़ीको जो समय-समयपर मार्गदर्शन दिया वह अपने आपमें अनूठा रहा है। पण्डितजीकी विद्वत्ता और सहजताका परिचय मुझे, प्रथम बार तब मिला, जब बीनामें जैनतत्त्वमीमांसा (श्री पं० फलचन्द्रजी द्वारा लिखित) का प्रथम बाचन हआ। लगभग सन 1958 में / उस विद्वत् समदायमें वे जिन महोंको अपने अकाटय तौके साथ उठाते थे. उनका परिहार सरल नहीं था। व्याकरणाचार्यको सिद्धान्तशास्त्रोंमें इतनी गहरी पैठ देखने लायक ही बनती थी। संगोष्ठीकी जीवन्त उपयोगिता उनके ही परिश्रमका फल थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.