Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-अन्य
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व्या० : बढ़ा है। इसी बीच कुरवाई ग्राममें परवार सभाका अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशनमें पण्डित
फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने दस्सापजाधिकारका प्रस्ताव विचारार्थ रखा। अधिवेशनके सभापति पण्डित देवकीनन्दनजी सिद्धांतशास्त्री थे और महामन्त्री श्रीमन्त सेठ वृद्धिचन्दजी सिवनी थे। उन्होंने समाजके प्रतिरोधको देखकर उस प्रस्तावको अग्राह्य करने के लिए एक समानान्तर प्रस्ताव तैयार किया, जिसे पण्डित फलचन्द्रजी और पण्डित महेन्द्रकुमारजी मानने के लिए तैयार नहीं थे । मैं भी उस आधवेशनमें सम्मिलित हुआ था । पर परवार समाज का अंग न होनेके कारण मुझे बोलनेका अधिकार नहीं था। इसलिए अध्यक्षकी आसन्दीके पास जाकर उनसे मैंने वह प्रस्ताव मुझे दिखानेका आग्रह किया। उस प्रस्तावको मैंने गौरसे देखा और अध्यक्ष महोदयसे उसे पास करानेका आग्रह किया। साथ ही मैंने ६० फलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजीसे कहा कि अपने प्रस्तावको वापिस ले लो और जो समानान्तर प्रस्ताव तैयार किया गया है उसे पास होने दिया जाये। पं० फूलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजी मेरी बातको मान गये और वह समानान्तर प्रस्ताव पास हो गया। उसमें जो महत्त्वकी बात थी वह यह थी कि उस प्रस्तावमें दस्सापूजाधिकारके विषयमें उस-उस ग्रामकी पंचायतोंको यह अधिकार दिया गया था कि वे चाहें, तो दस्साओंको पूजा करनेका अधिकार दे सकती हैं। इसका यह अर्थ हआ कि परवार सभाको दस्साओंका मन्दिरमें जाकर पूजा करनेका अधिकार मान्य है।
अब स्थिति यह है कि दस्सा लोग मन्दिरमें जाकर बेरोकटोक पूजा-प्रक्षाल करते हैं और दिगम्बर मुनियोंको आहारदान भी देते हैं और अब तो बेटी-व्यवहार भी होने लगा है । को० : यह तो आपकी सामाजिक गतिविधि हुई, सांस्कृतिक भी कोई आपकी गतिविधि है ? व्या० : सांस्कृतिक गतिविधिमें भी मैंने भाग लिया है। जब देवगढ़ तीर्थक्षेत्रपर श्री गनपतलालजी गुरहा
खुरईकी ओरसे गजरथका आयोजन किया जा रहा था, तब सन्मार्ग-प्रचारिणी समितिने विरोध करनेका आंदोलन अपने हाथमें लिया। मैं समितिका मंत्री था और पं० फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री उसके संयुक्त मंत्री थे। पत्र-पत्रिकाओंके माध्यमसे गजरथ-विरोधी आन्दोलनका धीरे-धीरे प्रभाव समाजमें बढ़ता गया, जिसे अनुभव कर दिगम्बर जैन परिषद आन्दोलनमें सामने आई । परिणामतः वह आंदोलन परिषद्के अन्तर्गत चला गया, क्योंकि सन्मार्ग प्रचारिणी समिति उसके सिद्धान्तोंको स्वीकार करती थी। पर परिषद्के एक प्रमुख कार्यकर्ताने समाचारपत्रोंमें यह घोषणा कर दी कि मैं और मेरी पत्नी प्रथम व्यक्ति होंगे; जो रथके सामने लेटकर सत्याग्रह करेंगे। इसका प्रभाव समाजपर प्रतिकूल पड़ा । फलतः यह आन्दोलन स्थगित करना पड़ा।
इसके पूर्व एक गजरथका आयोजन बारचौन (ललितपुर) में हुआ था। उसे रोकनेके लिए परवार समाजके प्रमुख व पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री, श्रीमन्त सेठ वद्धिचन्द्रजी सिवनी और सिंघई कुंवरसेनजी सिवनी (म०प्र०), मडावरा (ललितपुर, उ०प्र०) गये थे। उन्होंने मडावरामें एक बैठककी, जिसमें मड़ावराकी समाजके साथ वारचौनके गजरथकार श्री चन्द्रभानजी भी सम्मिलित हुए थे । उस बैठकमें अनुकूल निर्णय न हो सकनेके कारण परवार समाजके उक्त तीनों प्रतिनिधियोंने अनशन करनेकी घोषणा की और उस घोषणाका प्रभाव जब गजरथकारपर नहीं पड़ा, तो उन्होंने गजथरकारके सामने यह प्रस्ताव रखा कि गजरथ तो किया जाये, पर पंक्तिभोज बन्द करके उसमें व्यय होने वाले द्रव्यको देवगढ़ क्षेत्रके लिए दे दिया जाये। फिर क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम । तात्पर्य यही है कि उस अवसरपर परवारसभा भी गजरथ विरोधकी हामी थी।
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