Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५५
लेखनमें संलग्न रहते हैं। आज वर्षोंसे यही उनका जीवनव्रत है और इससे निष्पन्न आत्म-संतोष ही उनका स्व-अजित पुरस्कार है। संस्थाओंकी सेवा
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्के इतिहासमें पण्डित वंशीधरजीकी अध्यक्षताका काल गरिमाके साथ अंकित है । गुरु गोपालदास बरैयाका शताब्दी-समारोह उसी बीच आयोजित हआ और उसकी सफलतामें पण्डितजीका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालाके मंत्रीके नाते उन्होंने उस संस्थाको निरन्तर आगे बढ़ानेका प्रयास किया। उनके पश्चात् डॉ०५० दरबारीलालजी कोठियाके कार्यकालमें विकासको वह गति बनी रही और संस्थाने स्थायित्वकी ओर एक लम्बी यात्रा तय की। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि पूज्य वर्णीजीके समर्पित शिष्यों और उनके भक्तोंके परिश्रम और सहयोगसे जो संस्था सरस्वतीकी सक्रिय सेवा कर रही थी, वह अब मौन है । सोनगढ़-विचारधाराका खण्डन
जब सौराष्ट्रमें सोनगढ़से एकान्तकी आँधी उठी और समाजके मूर्धन्य माने जाने वाले कतिपय विद्वानोंका एक स्वार्थ-प्रेरित समुदाय, आगमकी अवहेलना करता हुआ उस आँधीमें बह चला, तब उस विषम कालमें बंशीधरजीके व्यक्तित्वका वह पुराना जझारू रूप फिर साकार होकर सामने आया ।
खानिया तत्त्वचर्चाके छद्मको अनावृत करनेका उन्होंने बीड़ा उठाया। इस बातकी पण्डितजीने कभी कोई चिन्ता नहीं की कि इस दिशामें लेखन और प्रकाशन से लेकर वितरण तक वे नितांत अकेले ही खड़े हैं। उसी छोटी-सी दुकानमें बैठकर उनका चिन्तन चलता रहा और लेखनी अविराम गतिसे दौड़ती रही। वे बहुत जल्दी, शायद आठ बजेके पहले ही सो जाते हैं और पिछले पहर दो-ढाई बजे उठकर अपने लेखनमें जुट जाते हैं । वर्षोंसे बिना रुके, और बिना थके उनकी साधनाका यह क्रम अनवरत चला आ रहा है। इसीका फल है कि उनके द्वारा प्रणीत साहित्यकी सूची प्रतिवर्ष लम्बी होती जा रही है। एक दिन यमुनामें विषहरे नागका उस बंशी वालेने जैसे मर्दन किया था, वैसे ही मिथ्या मान्यताके फणधरका मर्दन करनेका प्रयास यह मनस्वी बंशीधर अपनी आसंदीपर बैठकर निरन्तर कर रहा है।
पण्डितजीका यह पुरुषार्थ इस पृष्ठभूमिमें और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि सोनगढ़ विचारधारासे विरोध रखने वाले विद्वान् तो समाजमें अनेक हैं, पर उस दिशामें अपना समय और साधन लगाकर लेखन/प्रकाशन करने वाले बहुत बिरले हैं। सैद्धांतिक आधारपर सप्रमाण लेखनी चलाने वाले तो और भी कम हैं । "आ बैल मुझे मार" की चाल कोई चलना नहीं चाहता। इस संदर्भ में पं० बंशीधरजीका कृतित्व सदा आदरपूर्वक याद किया जाता रहेगा। साहित्यका सृजन
"खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा' लिखकर पण्डितजीने आगमका वह पक्ष सामने रखा है, जिसे कुछ लोग प्रयास-पूर्वक दबानेकी चेष्टामें नाना प्रकारके प्राणायाम कर रहे हैं। 'जैनशासनमें निश्चय और व्यवहार' पुस्तकके माध्यमसे पंडित बंशीधरजीने वस्तु-स्वरूपका सहज और सर्वमान्य निरूपण करते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि व्यवहारकी सर्वथा अनुपयोगिता मान लेने पर जीवनमें कितनी बड़ी विसंगतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। निश्चय साध्य है और व्यवहार उसका साधक है, नयोंकी ऐसी मैत्रीके बिना ज्ञानकी साधनामें एक पग भी आगे बढ़ना सम्भव नहीं है ।
पण्डितजीकी तीन पुस्तकें-'जनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक व्यवस्था', 'पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भो', तथा 'भाग्य और पुरुषार्थ', ऐसी पुस्तकें हैं जिनके माध्यमसे उन्होंने आजकी अनेक विवक्षा
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