Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
विहीन और मिथ्यात्व-पोषक एकान्त स्थापनाओंका न केवल निषेध किया है वरन पूर्व पक्षकी मान्यताओंको खण्ड-खण्ड करके विखेर दिया है। विशेषता यह है कि पण्डितजीने अपने लेखनमें हर जगह सबल और सार्थक शास्त्रीय-सन्दर्भ उद्धरणके रूपमें प्रस्तुत किये हैं। उनके अर्थ करते हुए कहीं भी कल्पनाका आश्रय या हठाग्रहका सम्बल उनके लेखनमें दिखाई नहीं देता । यदि अनाग्रही मनसे उनके लेखनको पढ़ा जाय तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बड़ा-से-बड़ा विरोधी भी प्रभावित होगा और अपनी मान्यताओं पर पनविचार करने के लिये विवश हो जाएगा । परन्तु यह तभी सम्भव है जब हमारी लौकिक लाभकी आकांक्षा कुछ ढीली पड़े और मानका विसर्जन होकर मार्दवकी मद्ता हमारे मन में अवतरित हो। जब भी ऐसा होगा, जैनशासनके लिए निश्चित ही वह बड़ा शुभ समय होगा।
"जैनतत्त्व मीमांसाको मीर्मासा" पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी मौलिक पुस्तक “जैनतत्त्वमीमांसा के प्रत्युत्तरमें, उनकी भ्रामक स्थापनाओंका खण्डन करके आगमकी मान्यताओंको स्थापित करनेका उद्देश्य लेकर लिखी गई पुस्तक है ।
अपनी जीवन-संगिनीके चिरवियोगके अवसर पर उन्होंने दान में कुछ द्रव्य निकाल कर उसे एक ट्रस्टका रूप दिया है । उसी ट्रस्टकी ओर से वे अपने साहित्यका प्रकाशन करते हैं और उसमेंसे कुछ भेंट स्वरूप और कुछ लागत मूल्य पर सुपात्र पाठकोंके हाथों तक पहुँचाते रहते हैं। कुछ अन्य संस्थाओंने भी पण्डितजोकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित की है। उनका लेखन उत्सुकतासे पसन्द किया जाता है और चावसे पढ़ा जाता है। मंगल मनीषा
जीवनका अधिकांश भाग जैनशासनकी सेवामें लगानेके उपरान्त आज भी पण्डित बंशीधरजी पूरी तरह सक्रिय, सावधान और सेवासंलग्न हैं। परिवार तथा परिग्रहके प्रति उनका विशेष ममत्त्व कभी नहीं देखा गया । इधर कुछ वर्षोंसे उन्होंने स्वयंको अपने ही भीतर समेंटनेका अभ्यास भी किया है । सघन अंधकार में निष्कम्प शिखावाले दीपककी तरह वे अपने परिकरके बीच भी, अपनी शारीरिक अनुकूलताओंके अनुरूप, साधनामें दिन-रात संलग्न हैं। मैं समझता है कि इस अभिनन्दनके बहाने उनके जीवनव्यापी श्रमको कागजके पन्नों पर उतारकर हम स्वयं अपना ही अभिनन्दन करनेकी चेष्टा कर रहे हैं । ध्येयकी प्राप्तिके लिए ऐसा एकांत-समर्पण, ऐसी मूक साधना और ऐसी अनवरत संलग्नता जिसे भी प्राप्त हो जाय उसका व्यक्तित्व वन्दनीय और जीवन अभिनन्दनीय हो होगा। आइये उनके स्वस्थ्य दीर्घ-जीवनकी कामना करें।
ख्याति-लाभ-मानसे परे • प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी
झांसी मण्डल बुन्देली वीरता और मराठी क्रान्तिका २५ मई १८५८ तक गढ़ था। और यदि इस दुदिनपर कर्नल ह्य रोज रास्ता बदलकर मदनपुर-घाटीकी ओर मुड़कर शाहगढ़ राजकी नूतन राजधानी मडावरापर सोरईकी सूनी गढ़ीपर कब्जा करके आगे न आता, तो मालथौन-घाटी 'धोर्रा' पर बन्देलावीर वानपुरनरेश मर्दनसिंह और शाहगढ़नरेश वख्तबलीसिंहके सेनापतित्वमें फिरंगी सेनाका सफाया करके, रणचण्डी माता लक्ष्मीबाईको दक्षिणी आकमणसे; सहज ही मुक्त कर लेते । तथा क्रान्तिकारियोंका साथ देनेके लिये भेजे अकेले पड़े ओरछाके दीवान नत्थूखांके सफेद झण्डा दिखाकर देशद्रोहसे अनायास ही रोक लेते एवं मुग़ल साम्राज्य-विनाशके समान अग्रेजी-साम्राज्यकी भ्रणहत्या हो गयी होती। किन्तु 'अनहोनी न होय कदाचित्' ही तथ्य रहा। तथा १९४७ तक बुन्देला वोरभूमि अंग्रेजी क्रूर दमन और उपेक्षाका लक्ष्य रही। खण्डहर
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