Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
स्वाधीनता-संग्राम
अभी जीवनके संघर्षोंसे सामना हुआ ही था कि भारतमाताके मक्ति-संग्रामका बिगुल पूरे जोरसे बज उठा। कुछ दिन पहले अपनोंका जो आग्रह और गृहस्थीका जो आकर्षण उन्हें ज्ञान-साधनासे खींचकर बनारससे बीना ले आया था, मातृभूमिकी पुकारके सामने वह आकर्षण भी अशक्त हो सिद्ध हुआ। पच्चीस-छब्बीस सालकी युवावस्थामें अपनोंकी सारी चिन्ता छोड़कर बंशीधर स्वतंत्रता-संग्राममें कद पडे । देशको चिन्ता अपनी सारी चिन्ताओंसे ऊपर हो गई और मातृभूमिकी पुकारके सामने घर गृहस्थी की सारी मनुहार बिखर कर रह गई । चाहे १९३१ का असहयोग आन्दोलन हो या १९३७ के एसेम्बली के चुनाव हों, १९४१ का व्यक्तिगत सत्याग्रह हो या १९४२ का 'भारत छोड़ो आन्दोलन हो, बंशीधरने तन, मन और धन सब कुछ उस महायज्ञमें होम करते समय कोई संकोच नहीं किया। जैसी निष्ठा और समर्पणके साथ उन्होंने ज्ञानकी आराधना की थी, वैसी ही निष्ठा और समर्पणके साथ मातभूमिकी सेवामें भी उन्होंने अपने आपको नियोजित कर दिया ।
नगर कांग्रेस-कमेटीकी अध्यक्षतासे लेकर प्रान्तीय कांग्रेस-कमेटीकी सदस्यता तक उन्हें जब, जहाँ, जो काम सौंपा गया उसे उन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थोसे परे, एक अनोखी गरिमाके साथ निभाया । सन् १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलनमें पण्डित बंशीधरजीकी भूमिका इतनी स्पष्ट रही, उनका योगदान ऐसा अनुकरणीय रहा और उनका सेवा-संकल्प इतना दृढ़ रहा कि वे अपने ही साथियोंमें उदाहरण बनते चले गए। कितनोंने उन विषम परिस्थितियोंमें उनसे प्रेरणा प्राप्त की और कितने घरोंमें उनकी सहायतासे मनोबलके दीप जलते रहे, इसकी कोई सूची न कभी बनी, और न बन सकेगी। जहाँ सेवक ही मौन-व्रती हो वहाँ सेवा-कार्योका लेखा-जोखा हो भी कैसे सकता है।
आज तो रिवाज बदल गए है । देशसेवा एक लाभजनक व्यापार बनकर रह गई है। परन्तु १९३१ से १९४६ तकके पच्चीस साल स्वाधीनता-संग्रामके ऐसे साल थे, जब इस यज्ञमें आहुतियाँ तो थीं परन्तु जयकारे नहीं थे, मालाएँ नहीं थीं। समर्पित करनेके लिए तो बहुत कुछ था, परन्तु उसके बदले में आत्म-संतोष ही एक मात्र उपलब्धि मानी जाती थी। सागर और नागपुरके जेलोंमें बिताया गया बंदी जीवन हो या अमरावती जेलमें सही गई दुर्दम यातनाएँ, पण्डित बंशीधरका अपराजेय व्यक्तित्व कहीं तनिक भी झुका नहीं। जेलकी इन यात्राओंने उन्हें "बसुधैव कुटुम्बकम्' के नये पाठ पढ़ाये। छुआछूत और दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियोंके विरुद्ध जूझनेका साहस और संकल्प प्रदान किया। यहींसे उनके व्यक्तित्वमें एक नया निखार प्रारम्भ हुआ।
बंशीधरजोके जीवनका एक चमकदार पहलू यह भी है कि उन्होंने स्वाधीनता-संग्रामकी अपनी सेवाओंको भुनानेका कभी विचार तक नहीं किया। उस योगदानके उपलक्ष्यमें किसी प्रतिफलके लिये वे अपने प्रमाणपत्र हाथमें लेकर कभी सत्ताधीशोंके द्वारपर दण्डवत् करने नहीं गये। उन्होंने यह मान लिया कि स्वतंत्रता प्राप्तिके साथ ही वह लड़ाई समाप्त हो गई है, और यही सोचकर उन्होंने अपने आपको सेवाके दूसरे कार्यों में नियोजित कर लिया। इसीलिए प्रदेशमें जब सत्ताका सदावर्त खुला और लोग तरह-तरहके जुगाड़ करके उसमें आगे बढ़नेकी कोशिशें करते दिखाई दिये, तब जो इने-गिने आस्थावान और गैरतमन्द लोग उस पंक्तिसे पृथक् रहे, उनमें पण्डित वंशोधरजी बहुत आगे थे। मूक-सेवाकी यह प्रवृत्ति ही उन्हें देशसेवाकी इस दिशामें जितना आगे ले गई थी, सरस्वतीकी सेवाके क्षेत्रमें भी उतना ही आगे बढ़ाती जा रही है। प्रतिफल और पुरस्कारकी कोई आकांक्षा नहीं है, कहीं किसी पदका कोई व्यामोह नहीं है, शायद इसीलिए आज जीवनके संध्याकालमें भी वे वैसे ही सक्रिय हैं और उतनी ही निष्ठा और लगनके साथ अध्ययन-मनन, चिन्तन और
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