Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य
सब वस्तुएँ मंहगी रहती हैं । कटनीमें चुंगी न रहनेसे सस्ती रहती हैं, अतः सागरके लोगोंने उपयोगी वस्तुएं कटनीमें खरीदीं। मैंने पं० बंशीधरजीसे कहा-मैं भी कुछ खरीद लाऊँ । पण्डितजीने कहा कि यहाँ सस्तो होनेसे खरीद कर तथा विस्तरमें छिपाकर ले जाओगे । सागरकी म्युनिसिपलटी, चुंगी लेकर आपके बच्चोंको फ्री शिक्षा देती है। वर्ष में कुछ थोडा-सा टेक्स देकर आपके शौचालयोंको साफ कराती है और नगरमें स्वच्छता तथा प्रकाशकी व्यवस्था निःशल्क करती है, इतने पर भी आप उसे चंगी नहीं देना चाहते । मेरी रायमें आप अपनी उपयोगी वस्तएँ सागरमें ही खरीदें तो ठीक होगा। मझें पण्डितजीकी राय उत्तम प्रतीत हुई। वैदुष्यको गहराई
एक बार सागरमें एक माह तक चलने वाले शिक्षण-शिविरके अन्तिम दिनोंमें विद्वत्सम्मेलनका आयोजन किया गया उसका विषय था 'षटखण्डागमके तेरानवें सत्रमें संजद पदका अस्तित्व" । इसपर एक गोष्ठी बम्बईमें हो चकी थी। और उसके आधारपर आचार्य शान्तिसागरजीने ताम्रपत्रपर लिखी जानेवाली प्रतिसे "संजद पद" अलग करा दिया था। उस समय विद्वत्परिषदका वर्चस्व था, अतः यथार्थ निर्णय करनेके लिए कार्यालयमें पत्र आया। सम्मेलनमें पण्डित कैलाशचन्द्रजी, पं० बर्द्धमान शास्त्री, पूज्य वर्णीजी तथा अन्य अनेक विद्वान थे। सम्मेलनमें पं० बंशीधरजी और वर्धमानजीके बीच अच्छा तर्क-वितर्क हुआ। अन्तमें विद्वत्परिषदने तेरानवें सत्रमें "संजद" पदके अस्तित्वका समर्थन किया और प्रसन्नताकी बात रही कि ताडपत्रीय प्रतिमें भी उसका अस्तित्व मिल गया। आर्षमार्गके अनुयायो
सोनगढ़की विचारधाराके आप कभी समर्थक नहीं रहे । निश्चय और व्यवहारनय एवं निमित्त और उपादानको चर्चा आप अनेकान्तके आधयसे हो करते हैं। आपके द्वारा लिखित जैन शासनमें 'निश्चय और थ्यवहार" नामक ग्रन्थ विद्वत्परिषद्के द्वारा पुरस्कृत है ।।
__ आचार्य शिवसागरजीके चातुर्मासके समय खानिया जयपुरमें स्व० हीरालालजी पाटनी निवाईके सौजन्यसे उभय पक्षीय विद्वानोंको एकत्रित कर तत्त्वच का आयोजन किया गया था। इस आयोजनमें पं० मणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, पं. बंशीधरजी, न्यायालंकार, पं० मक्खनलालजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० फूलचन्द्रजी, पं० जीवन्धरजी, पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार तथा पं० पन्नालालजी सोनी आदि अनेक विद्वान् पधारे थे। मैं भी गया था। लिखित चर्चा होती थी। सोनगढ़पक्षको ओरसे पं० फूलचन्द्रजी प्रधान थे और दूसरे पक्षसे पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य प्रमुख थे। दस दिन तक चर्चा चलती रही। विद्वानोंका अभीक्षणज्ञानोपयोग दर्शनीय था। प्रकरण लम्बा है। संक्षेपमें मैं यही कहना चाहता हूँ कि इस चर्चाके निष्ठापनमें पं० बंशीधरजीने पूर्ण मनयोगसे कार्य किया। घरमें पितृतुल्य श्वसुर शाह मौजीलालजीका स्वर्गवास होनेपर भी वे स्थानीय चर्चासे विरत नहीं हए। तथा च के तीन दौर समाप्त हो जानेपर भी उनकी लेखनी अपने लक्ष्यसे विरत नहीं हई। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
स्वतंत्रता-संग्रामके समय आपने निर्भय हो राष्ट्रीय आन्दोलनमें भाग लिया, जेल गये और वर्तमानमें सागर जिलेके स्वतंत्रतासंग्राम सेनानियोंमें आपका नाम गौरवके साथ लिया जाता है । श्री भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद्के अध्यक्ष
सन् १९६५ में पंचकल्याणक-प्रतिष्ठाके समय सिवनीमें होनेवाले विद्वत् परिषदके जनरल अधिवेशनके
स्वतन
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