Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
उत्तर-डॉ० साहब, जीवनका क्या गुजरना था, पहले डेढ़ वर्ष तक मामाके यहाँ रहा और फिर सागर चला गया।
प्रश्न-आप वाराणसी ऐसी अवस्थामें कैसे चले गये ?
उत्तर--सागरमें एक दिन बड़े पण्डितजी गणेशप्रसादजी वर्णीके दर्शन हो गये । उस सयय मैं कोई १४ वर्षका होऊँगा। पता नहीं, क्या देखकर वे मुझे अपने साथ वाराणसी ले गये और वहीं स्याहाद महाविद्यालयमें भर्ती करा दिया ।
प्रश्न-बनारसमें कितने वर्ष तक पढ़ते रहे ?
उत्तर-वर्णीजीके कहनेसे मुझे प्रवेशिकामें भर्ती कर लिया। वाराणसीमें ११ वर्ष तक अध्ययन किया। व्याकरणाचार्य वहीसे पास किया। हमारे जमानेमें धर्मशास्त्रका कोई विशेष महत्त्व नहीं था । पं० कैलाशचन्द्रजी, ५० फूलचन्द्रजी हमसे सीनियर थे और वे ही हमें कभी-कभी धर्मशास्त्र पढ़ा दिया करते थे।
प्रश्न--विद्यालयकी कोई घटना याद हो, तो बतलाइये ?
उत्तर--एक दिन पं० फुलचन्द्रजीका झगड़ा किसी छात्रसे हो गया। अपने साथ अभद्र व्यवहारको देखकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उस समय मैं बीना आया हुआ था। जब मैं वापिस वाराणसी गया तो मैंने फूलचन्द्रजीसे त्यागपत्र नहीं देनेके लिये कहा। मेरी और फलचन्द्रजीसे घनिष्ठता थी । जब कैलाशचन्द्रजी कक्षामें पढ़ाने आये, तो हमने उनका विरोध किया और फूलचन्द्रजीका पक्ष लिया।
प्रश्न-आपके अध्ययनकालमें विद्यालय कैसे चलता था ?
उत्तर-हमारे जमानेमें विद्यालयमें करीब ४० छात्र थे, जो विभिन्न कक्षाओंमें पढ़ते थे। सभी बोडिंगमें रहते थे तथा विद्यालयका अच्छा वातावर ग था और उसकी प्रतिष्ठा भी काफी अच्छी थी। उस समय श्री सुमतिचन्द्रजी विद्यालयके मंत्री थे। वे संस्थाकी अच्छी तरह देख-भाल करते थे। सभी छात्रोंमें सामंजस्य था।
प्रश्न-आपने खानिया तत्त्वचर्चामें क्यों भाग लिया?
उत्तर-पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीकी 'जैन तत्त्वमीमांसा' पुस्तककी समाजमें बड़ी चर्चा रहती थी। उसका हमने बीनामें आठ दिनतक वाचन भी कराया। वाचनामें 40 कैलाशचन्द्रजी. ६० जगमोहनलालज पं० लालबहादुरजीने तथा मैंने भाग लिया। विद्वतपरिषदको कार्यकारिणीकी मीटिंग भी वहाँ थी। विद्वत् परिषद्की ओरसे पुस्तकपर विचार करनेके लिये एक सम्मेलन बुलाया था । अन्तमें वाचनामें पं० फूलचन्द्रजी के प्रयासको तो सराहना की गयी । किन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तोंका विरोध भी किया गया ।
प्रश्न-मैंने सुना है कि आपने 'जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा' भी लिखी थो?
उत्तर-आप जो कह रहे हैं वह सही है । मैंने बीना-वाचनाके पश्चात् 'जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा' पुस्तक लिखी थी, जिसकी बादमें काफी चर्चा रही।
प्रश्न-'जयपुर (खानियाँ) तत्त्वचर्चा' के इतिहासके बारेमें भी कुछ प्रकाश डालें ?
उत्तर-डा० साहब, यह एक लम्बी कहानी है। खानियाँ तत्त्वचर्चा अक्टूबर सन् १९६३ में हुई थी। इसके पूर्व मैंने कितने ही लेख लिखे थे, जिनमें जैन तत्त्वमीमांसाकी आलोचना की गई थी। मेरे प्रायः सभी लेख 'जैन गजट' में प्रकाशित हुये थे। लेकिन कुछ समय बाद जैन गजटने लेख प्रकाशित करना बन्द
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,