Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ सोरई : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सफरको थकानके बावजूद हम लोग उसी दिनसे काममें जुट गये । सबसे पहले हम लोग उस प्राचीन जैन मंदिरकी ओर रवाना हुए, जो बादमें स्कूलका रूप ले चुका था। इसी स्कूल में पूज्य पिताजीको शिक्षा आरम्भ हुई थी। जैसे ही हम लोग वहाँ पहुँचे, तो मैंने मंदिरजीको ऐसी स्थिति देखी, जिसकी मुझे कदापि कल्पना नहीं थी। कभी वहाँ मंदिर रहा होगा, लेकिन वर्तमानमें वह जीर्ण-शीर्ण हालतमें एकदम खण्डहर हो चुका था। जगह-जगह उस मंदिरजीकी दीवालोंपर घास उग आई थी। धरातलसे करीब १५ फुट ऊँचे टोलेपर बने उस मंदिरमें जानेका मुझे रास्ता नहीं सूझ रहा था। ऊबड़-खाबड़ रास्तेसे ऊपर चढ़कर जाना पड़ा, तब कहीं हम लोग उस मन्दिरके मुख्य द्वारतक पहुँच सके । जैसे ही मैं मन्दिरके अन्दर प्रवेश हुआ, तो पाया वहाँ एकदम अन्धेरा, केवल मुख्य द्वारसे मद्धिम रोशनी अन्दर प्रवेश कर रही थी, जो हमें अन्दरका रास्ता बतानेके लिए पर्याप्त थी। अन्दर मकड़ियोंने भी अपने जाल फैला लिए थे, "कुछ देरके लिए मैं सोच में पड़ गया ! जहाँ कभी मन्दिर रहा, उसके बाद प्राईमरी स्कूल रहा तब वहाँ अच्छी-खासी चहल-पहल रहती होगी, लेकिन आज एकदम वीरान्""!"
मैं पनः वर्तमान स्थितिमें लौट आया और वहाँके मन्दिरजीकी प्रतिष्ठाका शिलालेख खोजने लगा। आदरणीय भैयाजीका साथ था । अतः किसी किस्मकी बाधा उत्पन्न नहीं हुई। मन्दिरजीके फर्शपर मिट्टी आदिका जमाव भी काफी हो गया था, कारण कि मैंने देखा कि मन्दिरका ऊपरी हिस्सा ढहकर नीचे गिर गया था। जैसे ही भैयाजीने वहाँकी वेदिकाके नीचे पाषाणपर उत्कीर्ण "प्रतिष्ठा-लेख" की ओर इशारा किया तो मैंने देखा कि वहाँकी वेदिकापर इस समय कोई पत्थर नहीं था, हाँ। केवल शिलालेखका वह पत्थर वहाँ ज्यों-का-त्यों अवश्य लगा था। समय बीतनेके साथ-साथ धूल, मिट्टी आदि उस शिलालेख एवं वेदिकापर अपना स्थान बनाती रहीं। हम लोगोंने वहाँके स्थानीय व्यक्तियोंको सहायतासे उस शिलालेखको साफ करनेकी असफल कोशिश की। तब भी उसपर खुदे हए अक्षर अस्पष्ट थे, जो पढ़नेमें बिल्कुल नहीं आ रहे थे। अतः हम लोगोंने शिलालेखपर सूखे चुनेका लेप लगाया, जिससे शिलालेखके शब्द उभरकर सामने आ गये, जिन्हें अब आसानीसे पढ़ा जा सकता था। करीब ५ फट लम्बे और आधा फट चौडे इस शिलालेख पर चार पंक्तियोंमें इस मन्दिरजीकी प्रतिष्ठा सम्बन्धी जानकारी अंकित थी।
उस शिलालेखको मैं पढ़ता गया और आद० भैयाजीने उसकी इवारत एक कागजपर उतार ली। तत्पश्चात उन्होंने शिलालेख पढ़ा और मैं एक दूसरे कागजपर ज्यों-का-त्यों लिख लिया, ऐसा इसलिए किया ताकि शिलालेखका सार समझने में हम लोगोंको कोई परेशानी न हो। इसके बाद तुरन्त ही मैंने उस शिला. लेखके विभिन्न दिशाओंसे कुछ चित्र कैमरेको मददसे ले लिए। शिलालेखसे ज्ञात हआ कि यह मन्दिर १८२ साल पुराना है। शिलालेख वि० सं० १८६४ में लिखा गया था, लेकिन मन्दिरका निर्माण वि० सं० १८६२ में आरम्भ हो गया था, लगभग दो वर्ष इसे बनाने में लगे । मन्दिरजीसे बाहर आकर मैंने मन्दिरजीके कुछ चित्र लिए। एक खास बात मुझे यह भी देखनेको मिला कि यह मान्दर ठाक
ने यह भी देखनेको मिली कि यह मन्दिर ठीक सोरईके किलेसे सटकर बना हुआ है । अतः मैंने उत्सुकतावश मन्दिर एवं किलेका संयुक्त चित्र अपने कैमरेमें कैद कर लिया।
यहाँ हम लोगोंका अधिकांश समय व्यतीत हो गया था । समय रहते भैयाजीने मुझे उस मकानके दर्शन कराये, जहाँ पूज्य दादीजी और पूज्य पिताजी रहा करते थे । “पुराने तरीकेका बनाकच्चा मकान, जिसमें सामनेकी तरफ दो दरवाजे थे। एक बड़ा और एक छोटा । बाहरको ओर दरवाजेके पास ही दो आले बने
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