Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य साहित्यिक सन्दर्भ
जैन जातियोंकी संख्या चौरासी बताई गई है। इनमें 'गोला' पदसे जिनके नाम आरम्भ हए है उनमें तीन जातियाँ हैं-'गोलापूर्वान्वय, गोलाराड और गोलशृंगार । माणिक्यसुन्दरसूरिकृत संवत् १४७८ के 'पृथ्वीचन्द्रचरित्र-वाग्विलास' में इन तीनका उल्लेख नहीं है, केवल 'गोला' नामक एक जातिका क्रमांक तिरेसठपर उल्लेख है । ३९
श्री पूर्णचन्द्र नाहर द्वारा अकारादिक्रमसे प्रकाशित नामावलीमे अठारहवें क्रमांकपर 'गोलावा' जातिका नाम आया है । इसीप्रकार मोहम्मदशाहके समयकी जातियोंमें 'गोलावाल'४१ और कवि लावण्यसमयकी कृति 'विमलप्रबन्ध में 'गोलवाल' जातिका नामोल्लेख हुआ है।४२ श्रीसौभाग्यनन्दिसूरि रचित संवत् १५७८ के 'विमलचरित' में अवश्य गोलाराड, गोलसिंगारा और गोला इन तीन जातियोंके नामोल्लेख हुए हैं।४३ इनमें गोलापूर्व जातिका नामोल्लेख नहीं हुआ है । पर प्रतीत होता है कि इनमें 'गोला' शब्द गोलापूर्व जातिके अर्थमें व्यवहृत हुआ है। गोलाराका प्रशस्तियों में गुलराड्, गोलाराडिय और गोलालाडयउ नामोंसे व्यवहार हुआ है।४४
इन गोला, गोलावाल, गोलवाल, गोलाराड् और गोलसिंगारा जातीय नामोल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि इन नामोंमें उनके आदिमें प्रयुक्त ‘गोला' पद उस 'गोला' नामक स्थान या देशका सूचक है जहाँके वे मूल निवासी थे। चौरासी जातियोंमें अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल और मेड़तवाल आदि अन्वयोंके नामोंसे यह सम्भावना होती है क्योंकि ये जातियाँ भी अपने स्थानविशेषोंकी प्रकाशक हैं।
संवत् १८२५के नवलशाहकृत हिन्दी ‘वद्धमान पुराण' तथा बख्तराम रचित संवत् १८२७ के 'बुद्धिविलास' ग्रन्थ में 'गोलापूर्वान्वय' का नाम सर्वप्रथम दर्शाया गया है। इसके पश्चात् गोलाराड, गोलसिंधारे आदिका उल्लेख किया गया है ।४५
प्रतीत होता है कि 'गोला' नामक स्थानसे उद्भूत जातियोंमें गोलापूर्वान्वयके श्रावक सर्वप्रथम 'गोला' स्थानसे निकले थे। इसीसे वे 'गोलापूर्व' कहे गये । 'पूर्व' शब्दके दो अर्थ है-एक पूर्व दिशा और दूसरा किसी अन्यकी अपेक्षा पहले। 'पूर्व' पदके इन दोनों अर्थोंसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'गोलापूर्वान्वय' के श्रावकोंने गोलाराड् और गोलसिंघारे अन्वयोंसे पहले 'गोला' या 'गोल' नामक नगरसे निर्गमन किया था तथा वे वहाँसे पूर्व दिशाकी ओर जा बसे थे। सर्वप्रथम श्रावकके व्रत ग्रहण करने और सर्वप्रथम 'गोला' नगरसे निर्गमन करनेके कारण तथा गोलानगरसे पश्चात् निर्गमन करने वाले एवं व्रत ग्रहण करनेवाले अपने परवर्ती अन्वयोंकी अपेक्षा अपनेको अपूर्व (विशिष्ट) बतानेके लिए सम्भवतः इन्होंने अपने समूहको 'गोलापूर्वान्वय' संज्ञासे अभिहित किया था। यह मान्यता संवत् १८२७ तक अक्षुण्ण रही ज्ञात होती है। इस उल्लेखसे मदनवर्मदेवके वैराग्यके सम्बन्धमें पहले की गयी कल्पना भी युक्त प्रतीत होती है।
___ इस प्रकार गोल्लागढ़, मऊ, महोबा, खजुराहो, छतरपुर, मलहरा, द्रौणगिरि, रेशन्दीगिरि, मदनपुर, अहार, पपौरा, सोनागिरि आदि जिन स्थलोंसे मदनवर्मदेव चन्देलके अभिलेख प्राप्त होते है वे स्थल तथा वर्तमान छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर, ग्वालियर, खनियाधाना, भिण्ड और उत्तरप्रदेशके झांसी व ललितपुर जिले ‘गोल्लदेश' के नामसे विख्यात रहे प्रतीत होते हैं । गोल्लागढ़ सम्भवतः राजधानी थी।
इतिहासकार रतिभानुसिंह नाहरने सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड और दक्षिणमें जबलपुरके पड़ौसका प्रदेश मदनवर्मदेव चन्देलके राज्यमें सम्मिलित रहा बताया है।४६ उन्होंने मदनवर्मदेवका अन्त केसे हुआ, इसका कोई उल्लेख नहीं किया है । पर इस सम्बन्धमें अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि ई० ११६३ में किसी कारणसे विरक्त
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