Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
२/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : १३
को०: केवलारी (सागर) के गजरथ-विरोधमें आपका क्या दृष्टिकोण रहा ? व्या० : देवगढके गजरथके बाद केवलारी, जिला सागरमें भी गजरथका आयोजन हआ था। और सन्मार्ग
प्रचारिणी समितिने उसके विरोध भी आन्दोलन किया था तथा दमोह, टीकमगढ़ आदि नगरोंके गजरथ विरोधो व्यक्ति भी गजरथके अवसरपर केवलारीमें इकटठे हुए थे। वहाँपर यह निर्णय किया गया था कि अनशन द्वारा गजरथके विरोध में आवाज बुलन्द की जाये। इस निर्णयके अनुसार कुछ व्यक्ति, जिनमें पं० फूलचंद्रजी शास्त्री प्रमुख थे, अनशनपर बैठे, जिसका प्रभाव यह हुआ कि पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री व पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री आदि परवार समाजके प्रमुख व्यक्तियोंने गजरथके विषयमें भविष्यके लिये नीति-निर्धारण करनेकी बात सोची और सम्मेलन भी आयोजित किया । उसमें गजरथविरोधी व्यक्ति भी सम्मिलित हुए। उस सम्मेलनमें एक प्रस्ताव पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीने प्रस्तुत किया, जिसे गजरथविरोधियोंकी तरफसे स्वीकार करनेकी बात मैंने कही। पर पं० जगन्मोहनलालजीने स्वयं एक संशोधन उपस्थित कर दिया। उसको भी जब मैंने स्वीकार किया, तो उसपर भी एक संशोधन उन्होंने रखा। इस तरह कई संशोधन एक-के-बाद-एक वे रखते गये और सभीको गजरथविरोधी स्वीकार करते गये; क्योंकि वे गजरथविरोधी भावनाके अनुकूल थे। अन्तमें सम्मेलनमें तय हुआ कि सन्मार्ग प्रचारिणी समितिका कोई पदाधिकारी कारंजा पहुँचकर पं० देवकीनन्दनजी सि० शा के साथ विचार-विनिमय करे और योग्यतम निर्णय करने में पं. देवकीनन्दनजीको सहयोग दे। मैं इसी उद्देश्यसे कारंजा गया। परन्तु पं० देवकीनन्दनजीने निर्णय करने में उत्सुकता नहीं दिखलाई । उसका परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर गजरथ निराबाध चलने लगे, जो अबतक चल रहे हैं।
यहाँ मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि केवलारी सम्मेलन में तो संशोधन एक-के-बाद-एक रखे गये, उस सम्बन्धमें मैंने दूसरे दिन पं० जगन्मोहनलालजीसे कहा कि आपका प्रस्ताव और उसके प्रत्येक संशोधन गजरथविरोधियोंने मान्य कर लिए, फिर क्यों आपने संशोधनों सहित प्रस्ताव पारित नहीं कराया और क्यों नये-नये संशोधन प्रस्तुत किये? उन्होंने जवाब दिया कि परवारसभाके कुरवाई अधिवेशनमें दस्सापूजाधिकारके सम्बन्धमें जो प्रस्ताव पास किया था, उसे जब पं० फूलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजोने स्वीकार कर लिया, तो हम लोगोंको शंका हुई कि प्रस्तावमें कोई-न-कोई खामी अवश्य है। वही शंका गजरयके विषयमें रखे गये प्रस्ताव और संशोधनोंको गजरथ-विरोधियों द्वारा स्वीकार कर लिए जानेपर हम लोगोंको हई, जिससे गजरथके विषयमें नीति-निर्धारणको
बात आगेके लिए टाल दी गयी है । आगे जो कुछ हुआ, वह ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है । को० : आपने संस्थाओंकी भी सेवा और संचालन किया है, उनके विषयमें आपके कैसे अनुभव है ? व्या० : बीना (सागर) में, जहाँ मैं रहता हूँ, जैन समाजकी एक सामाजिक संस्था है, जो बहुत पुरानी है।
वह संस्था सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्थाके साथ सामाजिक व्यवस्था भी करती है । उसका मैं सन् १९३८ से १९४० तक सहायक मंत्री रहा। उसके पश्चात् सन् ४१ से ४३ तक मंत्री रहा । सन् ४४ में संस्थाके अध्यक्षको नोतिसे क्षुब्ध होकर कई पदाधिकारियोंके साथ मैंने मंत्री पदसे त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद सन् ५३ में इच्छा न रहते हुए सदस्योंके आग्रहपर संस्थाका मंत्रित्व पुनः सम्हालना पड़ा। फलतः सन् ६८ तक मैं उसका मंत्री रहा । और अशक्तिवश मंत्रित्व छोड़ देनेपर तीन वर्ष तक उसका उपाध्यक्ष रहा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org