Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
लालजी उनके स्नेहके वशीभूत होकर महीनों गर्मियोंके अवकाशमें भौड़ीमें रहा करते थे। मुझे भी कई बार भौड़ी जानेका अवसर मिला । उनके दो पुत्र तथा दो पुत्रियाँ है । उनके बड़े पुत्र श्री लीलाधर व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बेटीबाई भी उन्हींकी तरह स्नेह रखती हैं। श्री लीलाधरजीने अपनी माँ गौराबाई एवं पिता श्री पूर्णचन्दजीके स्वर्गस्थ होनेके पश्चात् अपना निवास अब महरौनी (ललितपुर) में बना लिया है । उनके भी दो पुत्र तथा एक पुत्री है। एक पुत्र भागचन्द्र महरौनीमें ही वर्णी कॉलेजमे अध्यापक है तथा दूसरा पुत्र उत्तमचन्द्र भी गुढ़ा (ललितपुर) में शिक्षक हैं । दोनों पुत्र सेवाभावी एवं कर्मठ हैं।
दूसरा पुत्र कपूरचन्द्र भी, शास्त्री पास करके कई वर्षोंसे अशोकनगर, म०प्र० में अध्यापनरत हैं। उसके भी दो पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हैं । पुत्र हेमन्त व अशोककुमार है ।
जन्म:
श्री बंशीधरजीका जन्म भाद्र शुक्ला ७, वि० सं० १९६२ में हुआ। पिताका नाम श्री प० मुकुन्दीलालजी और माताका नाम श्रीमती राधादेवी था। पिताजी उस क्षेत्रके माने हए विद्वान पण्डित, शास्त्रप्रतिलेखक और प्रतिष्ठाचार्य थे । समाजमें जहाँ-कहीं जल-यात्रा, सिद्धचक्रविधान, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि धार्मिक कार्य होते थे उनमें उन्हें ससम्मान आमंत्रित किया जाता था। दशलक्षण (पय षण) पर्वमें भी शास्त्र-वचनिकाके लिए वे समाजके आमंत्रणपर जाते थे। उनके हाथके लिखे हए शास्त्र आज भी कई मंदिरोंमें उपलब्ध हैं। लोग न्यौछावरके लिये उन्हें लिखवाते थे ।
श्री बंशीधरजी जब तीन माहके ही शिशु थे, पिताजीको देवने उनसे छीन लिया था । जैसे-तैसे माताजी शिशुका पालन-पोषण कर रही थीं, किन्तु १२ वर्षकी अवस्थामें उनका भी साया उनपरसे उठ गया । वे अभावों में पले-पुषे और आगे बढ़े। जन्मस्थान :
(पंडितजी) बंशीधरजीका जन्मस्थान सोरई है, जो बहुत पहले गढ़ाकोटा (सागर) म० प्र० की जागीर थी और अब उत्तरप्रदेशके ललितपुर जिलेका एक प्रख्यात ग्राम है। यह प्रसिद्ध संत श्री गणेशप्रसाद वर्णों (मुनि श्री १०८ गणेशकीर्ति) की जन्मभूमि हंसेरा ग्राम (ललितपुर) से दो किलोमीटर पूर्व में अवस्थित है।
१. यहाँ पहले 'सौंर" जातिके आदिवासी रहते थे, जो इस ग्रामके पास पाये जानेबाले घने जंगलोंमें उपलब्ध जड़ी-बूटियों, अचार, महुआ, गुली, गोंद, लाख, मूसली आदि वन्य वस्तुओंका धंधा करके अपनी आजीविका चलाते थे। इन चीजोंके खरीददार व्यापारी एवं ठेकेदार भी यहाँ काफी संख्यामें रहते थे। सम्भवतः उनके निवासके कारण (सौंर + ई = सौरोंकी आवास भूमि होनेसे) इस ग्रामका नाम “सौंरई" पड़ा है।
२. कहा जाता है कि यहाँके व्यापारी उक्त चीजोंको लदरा बैलोंपर बहुसंख्यामें लादकर मिर्जापुर ले जाते थे और वहाँके बाजारोंमें उन्हें बेचते थे। तथा वहाँसे पीतल, तांबे आदिके बर्तन खरीद कर लाते थे। ऐसे लोगोंको 'सौंरया' कहते थे। अब भी वे यहाँ हैं और अच्छी स्थितिमें हैं। इनमें बहुतसे मड़ावरा, टीकमगढ़ आदि स्थानोंपर चले गये हैं। आज यह (सौंरया) उनका वंश बन गया है । पर यह सच है कि उनका उद्भव इसो ग्रामसे हुआ है। जैसे 'खण्डेला' ग्रामसे खण्डेलवाल और 'अग्रोहा' ग्रामसे अग्रवाल माने जाते है । गोलापूर्व जातिके ५८ वंशोंमें यह भी एक वंश है।
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