Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७
पढ़ना है तो आप किसी और विद्वान्को बुला लें। हम तो इसी प्रकार पढ़ावेंगे।" बस, उस दिनके बाद सभी साधु पण्डितजीसे यथोचित आदर करते हए पढ़ने लगे । पण्डितजीके अध्यापनसे सभी साध अनुभव करने लगे कि पण्डितजीके अध्यापनसे हमारी व्युत्पत्ति और विशिष्ट ज्ञान हआ है। सभी महाराज संतुष्ट और प्रसन्न थे। यह था पण्डितजीका स्वाभिमान । ऐसे अनेक प्रसंग उनके जीवनसे जुड़े हए है।
(ख) व्यवहारमें कठोरता, किन्तु सच्चाई-पंडितजी व्यवहारमें कठोर हैं, पर सच्ची बात कहनेमें वे संकोच नहीं करते। उन्हें मीठी, किन्तु झठी बात या चापलूसीसे बेहद नफरत है। उनसे बातचीत करनेवाला व्यक्ति कुछ समय समझता है कि पण्डितजीने इतना भी लिहाज नहीं किया। किन्तु विशेष परिचयमें आनेपर वही व्यक्ति स्वीकार करता है कि यह सिद्धान्त और नीतिकी बात है, जो सभीके लिए अनुपालनीय है। यह सत्य है कि "हितं मनोहारि च दर्लभं वचः ।" बात हितकारी भी हो और मनोहारी भी हो. दर्लभ है। कई लोग तो यहाँ तक कह उठते हैं कि "आप बहत रूखे हैं।" किन्तु पण्डितजी उसकी भी परवाह नहीं करते । और यथार्थ कहनेपर दृढ़ रहते हैं ।
(ग) व्यवसायमें एक बात--जब पण्डितजीने कपडेका व्यवसाय आरम्भ किया तो उन्होंने कपड़ा बेचने में "एक बात" (एक भाव) का सिद्धान्त स्थिर किया। कई लोगोंने कहा कि “पण्डितजी, आप एक बातके सिद्धान्तपर चलेंगे, तो दुकान नहीं चलेगी और न आप सफल हो पायेंगे।" पण्डितजीने कहा कि "दुकान चले या न चले । हम सिद्धान्तका परित्याग नहीं करेंगे। दुकान विश्वासपर चलती है और ग्राहक विश्वस्त होकर खरीदेगा।" फलतः पण्डितजी "एक बात" के सिद्धान्तमें पूर्ण सफल हुए। ग्राहकोंका विश्वास जम गया। आज स्थिति यह है कि अर्द्ध शताब्दी हो गयी और उनका वस्त्रव्यवसाय दस गुना हो गया और दुकानकी विश्वसनीयता सर्वत्र हो गयी। उनके पुत्र भी उसो सिद्धान्तपर चल रहे हैं। नम्बर दो का कोई कार्य नहीं होता । सेल्स टेक्स आफीसर एक तो आता नहीं और आये भी तो खाली हाथ चला जाता है। उसे घूस देने जैसा प्रश्न ही नहीं उठता । दुकान, घर आदिका सारा कार्य एक नम्बरमें ही होता है। खाते बही आदि सब सही रहते हैं।
(घ) कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकता-पण्डितजीने सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओंमें दीर्घकाल तक कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकताके साथ मानद सेवायें की हैं। स्थानीय श्री नाभिनन्दन दिगम्बर जैन हितोपदेशिनी सभा द्वारा संचालित मन्दिर और विद्यालयके मन्त्री पदसे लगभग १८ वर्ष तक उनकी सुचारु रूपसे सेवा की है । उस समय जो मन्दिर और विद्यालयका कार्य अव्यवस्थित था उसे पूर्णरूपसे व्यवस्थित बनाया। कभीकभी पण्डितजीको संस्था कार्य से सागरको अदालतमें जाना पड़ता था। उस समय आप गेंडाजीकी धर्म में ठहरते थे और वहाँसे पैदल कचहरी जाते थे। वहाँ जब क्लर्कसे संस्थाके कार्यके सम्बन्धमें बात की तो वह कुछ रुपया माँगने लगा। पण्डितजीने उसे इस तरह डांटा कि वह भयभीत हो गया और क्षमा मांगकर उसने तत्काल कार्य कर दिया। इसके बाद जब-जब पण्डितजीको कचहरी जाना पड़ा, तब-तब उस क्लर्कने उनके कार्यको प्राथमिकता दी । आज भी हम देखते हैं कि वे कर्तव्यनिष्ठा और नैतिकतासे अपने जीवनको संजोये हुए हैं।
(ङ) समयके पाबन्द-पण्डितजी समयके नियमित हैं। मन्दिर, स्वाध्याय, दुकान, भोजन, शयन, लेखन और बाहर गमन आदि उनका समयबद्ध है। बाहर जाना या आना है तो पण्डितजी समयपर स्टेशन पहुँच जायेंगे । गाड़ी भले ही लेट आये या जाये । यही उनकी समयनियमितता सभा-सोसायटियोंकी है। उनके कार्यक्रमोंमें विलम्ब हो सकता है पर पण्डितजीके उनमें शामिल होनेमें बिलम्ब नहीं होता । यह कहना चाहिए
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