Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएँ : ६१
एक निस्पृही साधु-सम वास्तविक गृहस्थ • श्री सुलतान सिंह जैन, एल० एल० बी०, बुलन्दशहर
आपकी शिक्षा ऐसे गुरुके आश्रममें हुई कि आप उनके ही समान निर्भीक जैनदर्शनके माने हुए विद्वान् बन गये। पं० बंशीधरजी, व्याकरणाचार्यने पू० क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णोकी छत्रछायामें स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीसे व्याकरणाचार्य, साहित्यशास्त्री आदि उपाधियाँ प्राप्त कर अपना जीवन प्रारम्भ किया।
आपकी जीवन-यात्राको हम तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। (१) स्वतन्त्रता सेनानीके रूपमें (२) सामाजिक-सुधारकके रूपमें और (३) तत्त्व-निर्णायकके रूपमें ।
१. स्वतन्त्रता सेनानी-१९३० में महात्मा गाँधीने पूर्ण स्वतन्त्रताका नारा लगाया। १९३१ में नमक कानून तोड़नेका आवाहन किया, आप तभीसे इस संग्राममें कूद पड़े। १४४२ के देशव्यापी भारत छोड़ो आन्दोलनमें आप ९-१० माह तक सागर व नागपुरकी जेलोंमें भी रहे। आप प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीके सदस्य रहे और वर्षों नगर कांग्रेस कमेटीके अध्यक्ष रहे।
२. समाज-सुधारक-जहाँ देशमें स्वतन्त्रताको लहर दौड़ रही थी, वहीं समाजमें सुधारोंकी बाढ़सी आ रही थी। आपने दस्सा पूजाधिकारका पूर्ण समर्थन किया। जो लोग वर्षोंसे धर्मकी अभिलाषासे तड़प रहे थे, उन्हें उनका अधिकार दिलाने में पूर्ण सहयोग दिया।
आप वर्षों सनातन जैन पत्रके सम्पादक रहे । पत्रका सम्पादन बड़ी तत्परता, निर्भीकता और लगनसे किया। मेरा परोक्ष परिचय तभीसे आपसे है क्योंकि मेरे पिता श्री मंगतराय जैन, साधु भी सनातन जैन समाजके एक अंग थे। प्रत्यक्ष दर्शन आपके शास्त्रीय परिषद्के ललितपुर अधिवेशनमें हए ।
आपका व्यक्तित्व बड़ा सरल है, आपने अपनी विद्याको जीवन-यापनका साधन नहीं बनाया, वरन् अपने स्वतन्त्र व्यापारमें संलग्न रहे हैं ।
३. तत्त्व-निर्णायक-सोनगढ़से निश्चय-एकान्त-मिथ्यात्वकी बाँग आ० कुन्दकुन्दके समयसारके नामपर लगी। स्वभावतया विद्वानोंका उधर ध्यान आकर्षित हुआ। लगभग सभी विद्वानोंने उसका विरोध किया । समाजका दुर्भाग्य रहा कि स्वर्णकी चमकमें एक-आध विद्वान् सोनगढ़के हाथ बिक गया।
यही नहीं, कुछ श्रेष्ठी वर्ग भी ऐसे ही मोहमें और आत्माकी बातके लोभमें आ गये, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि आल्हा-ऊदल सुनकर आदमी वीर रसमें बह जाता है । खानियाँ तत्त्वचर्चामें व्याकरणाचार्यजीका प्रमुख हाथ रहा है। जयपुरखानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षाका पहला भाग ४ प्रश्नोंका प्रकाशित हो चुका है। दो भाग और होने हैं, जो प्रायः तैयार हैं, जिनका प्रकाशन समाजका सहयोग चाहता है। इस पुस्तककी एक प्रति अवश्य होनी चाहिये और पहली तीन पुस्तकोंकी कम-से-कम तीन-तीन प्रतियोंका होना आवश्यक है। एक मन्दिरपर इस हिसाबसे १००) का खर्चा आता है जो कुछ भी नहीं है। इन पुस्तकोंके निकलनेपर अगले भागोंका प्रकाशन सुगम हो जायेगा और समाजको सावधान करता रहेगा।
इतना देशभक्त और जिनवाणी भक्त होते हुए भी न तो देशवासियोंने इस निस्पृही व्यक्तिको ऊंचा उठाया, न दि० जैन समाज उसको याद कर सका । अब उनकी आँखें खुली हैं और उनको कुछ लताड़ा है, साथ ही अब भी थपकी दे रहे हैं जिसका ज्वलन्त उदाहरण २०-७-८९ का जैन सन्देशका सम्पादकीय है।
अन्तमें मान्य गुरुदेवकी दीर्घायुको मंगल-कामना करते हुए, उनके चरणोंमें नत-मस्तक होकर नमस्कार करता हूँ।
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