Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
६६ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
महामनस्वी विद्वदुत्न
• डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु'
अध्यक्ष-संस्कृत प्राकृत विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह
सरस्वती - वरदपुत्र, श्रद्धेय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य अपनी ऊर्जस्वित् क्रियाशीलता, अप्रतिम विद्वत्ता, मौलिक चिन्तना, युक्त्यागम तर्क-पुरस्सर लेखन क्षमता, निर्भीक वक्तृता, अदम्य साहस, देव-शास्त्रगुरु के प्रति अटल निष्ठा, राष्ट्रीय / सार्वभौम विचारधारा और तदनुरूप प्रवृत्तियोंसे समवेत होने के कारण विगत आठ दशाब्दियोंके जीवन्त इतिहास हैं । उनके व्यक्तित्व में तीर्थंकर महावीर का जीवनदर्शन, महात्मा गांधीकी राष्ट्रीय प्रेरणा, सन्तप्रवर गणेशप्रसाद वर्णीका समाजोत्थान और शिक्षाप्रसार तथा ऐसे ही अनेक सन्तों- मनीषियों के दिव्य ललाम कृतित्वका चारुतम निदर्शन हुआ है ।
राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्रामके सजग प्रहरी और गम्भीर अध्येता श्री व्याकरणाचार्यजीके व्यक्तित्व और उनकी कार्यशैली विषयमें यथेष्ट जानकारी मुझे अपनी छात्रावस्थाके प्रारंभिक दिनों (सन् १९५१) में ही हुई । उन दिनों वे अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् के मंत्री थे और पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य संयुक्त मंत्री । वि० प० कार्यालय सागर में क्रियाशील था । विद्वत्परिषद्के कार्यकलापोंको नियंत्रित तथा प्रोत्साहित करनेके निमित्त वे समय-समय पर सागर पधारते थे । पं० पन्नालालजी से विचार-विमर्श करते समय व्याकरणाचार्यजीकी सूझबूझ और संस्था संचालनकी कुशल पद्धतिसे मैं बहुत प्रभावित था । १९५२ में पूज्य वर्णीजी नैनागिरजीमें विराजमान थे । पं० जी इसी समय विधान सभाके चुनाव में प्रत्याशी थे । हमलोग सागर विद्यालयकी ओरसे नैनागिर गये थे । वहाँ पहुँचे विद्वानोंसे पूज्य वर्णीजीने जिन गुण-गरिष्ठ शब्दों में पं० व्याकरणाचार्यजीके चुनाव सन्दर्भको चर्चा की, उससे ध्वनित हुआ कि वर्णी जैसे सन्तके मनमें 'व्याकरणाचार्यजी कितने गहरे पैठे हैं ।
समाज में व्याप्त अशिक्षाके कुहर शिक्षाकी उपेक्षा, कुरूढ़ियोंके व्यामोह और विशृंखलित प्रवृत्तियोंसे व्याकरणाचार्यजी न केवल चिन्तित रहे हैं, प्रत्युत इनके निरसन हेतु उन्होंने सदैव प्रयत्न किये हैं । व्याकरणाचार्यजीका ८४ वर्षीय जीवन इन्हीं प्रवृत्तियोंका सांगोपांग प्रतिबिम्ब है । वे समाज सेवा और राष्ट्र सेवामें भी अग्रणी हैं ।
समाजके समीचीन विकासके लिए आपने श्री नाभिनन्दन जैन हितोपदेशिनी सभा, सन्मति प्रचारिणी सभा आदि संस्थाओंको संगठित करके विद्याप्रसार और संस्कार सृजन किया तथा बहुव्ययसाध्य गजरथ जैसे आयोजनों की अनावश्यकता / व्यर्थता, साबित की है । सर्वप्राणि-साम्यभावके प्रतिपादक जैनधर्म के अनुयायियों में पारस्परिक भेद-दस्सापूजा प्रकरण आदिको दूर करने हेतु कठोर प्रयत्न किये और उनमें अच्छी सफलता प्राप्त की । उनके द्वारा सम्पादित पत्रिकाएँ ऐतिहासिक दस्तावेज हैं ।
जैनदर्शनके मूल तत्त्वोंकी विवेचनामें बढ़ती हुई स्वेच्छाचारिताको रोकनेके लिए आपने समाजको आन्दोलित किया, यथार्थको निरूपित करनेवाले अनेक ग्रंथ लिखे और आर्षमार्ग प्रतिपादक साहित्य-सृजन में अभी ८४ वर्षकी वृद्धावस्था में भी निरत हैं । वस्तुतः यह कार्य अभिनव और प्रकृष्ट योगदान व्याकरणाचार्यजीका समग्र जीवन चिन्तन-लेखन, समाज- राष्ट्र सेवा और स्वावलम्बी व्यवसायसे ओत-प्रोत है । शिक्षा और लेखनको उन्होंने कभी अर्थोपार्जनका माध्यम नहीं बनाया है ।
ऐसे निर्भीक महामनस्वी विद्वद्रत्नको यद्यपि 'सिद्धान्ताचार्य' प्रभृति सम्मानोंसे विभूषित किया गया है, पुनरपि उनके समग्र व्यक्तित्व और सार्थक सृजनसे युगको परिचित कराने और पूज्य पं० जीके दिव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org