Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३४ . सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
समाजकी नब्जके पारिखी • आचार्य जिनेन्द्र, सासनी (अलीगढ़)
“चारित्तं खलु धम्मो" के अनुसार आज भी प्राचीन कड़ीके मोती यत्र-तत्र देखने | दर्शन करनेको प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे ही प्रेत शास्त्र व्याकरण चारित्रके धनी पं० बंशीधरजीके दर्शन मझे उनके स्थायी निवास बीना (मध्य प्रदेश) में हुए ।
पं० जी संस्कृत भाषाकी कठिनतम विधा व्याकरणसे आचार्य है। उस समय व्याकरणसे आचार्य करना जैन समाज के लिये तो कौत्क/गौरबकी ही बात मानी जाती ।
अगस्त १९७३ में नाभिनन्दन संस्कृत विद्यालय, बीना में मात्र ३ माहके लिये पढ़ाने गया । प्राचार्य पं० मोतीलालजी थे। पं० बंशीधरजीके पास प्रतिदिन बैठता था। उन्हें देखकर मुझे स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके वैयाकरण दिवाकर जोशीजीकी उक्ति याद आती कि बेटे, व्याकरण पढ़ना-लोहेके चने चबाना है, क्योंकि यह लोक कहावत है
डाल गले में गंथरी, निश्चय जानो मरण ।
कु. च, ट. त.प रटिये, तब आवे व्याकरण । किन्त श्रद्धेय पं. बंशीधरजी जहाँ इतने काठन विषयके विद्वान हैं वहीं एक बड़े प्रतिष्ठित वस्त्रव्यवसायी भी है। मैंने देखा पर्यषणमें जब पं० जी धर्म-ध्यानमें अधिक समय लगाते तो ग्राहक दुकानके बाहर बैठे रहते कि जब पंजीकी दुकान खलेगी तभी हम खरीददारी करेंगे। उनकी नैतिकता और विश्वास इसका कारण था ।
पं० जी गम्भीर विचारक एवं समाज धर्मके ज्ञाता है। मैं गाडरवाड़ा दशलक्षण पर्व में प्रवचन करने गया। वापिस आया तो वहाँको समाजके एक दलाल महोदय एवं मुंशीजीका पत्र आया कि हमारी भेंट/ दक्षिणा वापिस करो या फलां संस्थाको दानको रसीद भेजो। मैं आश्चर्य असमंजसमें था कि जिस समाजने भक्तिभावसे प्रवचन सुना और पैर छू-छूकर स्टेशन तक भेजने आये, उनके नुमाइन्दोंकी ऐसी हरकत ?
मैंने पं० जीसे इस घटना चक्रका जिक्र किया तो पं० जी गम्भीर मुद्रामें विचारपूर्वक बोले शास्त्रीजी आप समस्त दक्षिणा वापिस भेज दो। यह समाज सेवा है। समाजका अनुभव अभी आप और करगे । उनके अन्तर्मनकी अनुभूति मैंने समझ ली और तुरन्त वैसा ही किया ।
आज सोचता है कि पण्डितजी जैसे व्याकरणविद, धर्मशास्त्रके ज्ञाता वैतनिक समाज-सेवासे दूर कैसे रहे ? वे सचमुच समाजकी नब्ज के पारिखी है। तभी तो उन्होंने मूक चिन्तन लेखनके साथ-साथ स्व व्यव. सायी/स्वावलम्बी रहनेका निश्चय किया। वे सचमुच सरस्वती पुत्र हैं। उनके साथ रहकर एक अनुभवजन्य ज्ञानकी प्राप्ति होती है। वे सदैव स्वाध्याय करते हैं और गम्भीर विषयोंपर लेखनी चलाते हैं । सत्य धर्मका पालन व्यापारमें करनेका मूलमंत्र तो कोई पण्डित श्री बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना वालोंसे पूछे । उन जैसे मनीषीका मैं अभिनन्दन एवं अभिवन्दन करता है। मेरी शतशः उन्हें शुभ कामनाएँ हैं । अभिवन्दनीय पण्डितजी .श्री श्रेयांस जैन, पत्रकार टीकमगढ़ (म० प्र०)
श्रद्धेय पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य एक ऐसे सारस्वत हैं, जिनकी सरस्वती चतुर्मुखी है । हम देखते हैं कि उन्होंने समाज, राष्ट्र, साहित्य सभी क्षेत्रोंमें अपनी सरस्वती का सफल उपयोग किया है । उन्होंने समाजको विखण्डित करने वाली रूढ़ियोंको दूर करने में सक्रिय कदम बढ़ाया है। १९४२ के 'भारत छोड़ो' .
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