Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
प्रश्न-40 जी साहब, अब एक निजी प्रश्न पर आ गया है। आपने प्रारम्भसे व्यापारिक क्षेत्रमें ही क्यों पर्दापण किया ? नौकरी या अन्य क्षेत्रको क्यों नहीं चुना? ।
पं० जी-मेरी दृष्टि सविसकी ओर तो रही है, परन्तु वह आजीविकाकी दृष्टिसे नहीं रही। जैन संस्कृतिकी सेवा और उसके उत्कर्षको भावनासे रही। मेरी भावना व्यापारिक क्षेत्रमें आनेकी मजबूरीमें हुई और मजबूरी यह थी कि मेरे ससुर साहब ऐसी कठिनाईमें नहीं डालना चाहते थे जिस कठिनाईका निराकरण करनेके लिये उन्होंने मुझे अपना दामाद बनाया था।
प्रश्न-आपने अनुभव किया होगा कि आजका युवा वर्ग शीघ्र उद्वेलित हो जाता है। आपके विचारसे इसके क्या कारण हो सकते है ?
पं० जी-आज उद्वेलित तो सभी लोग हो रहे हैं और इसका कारण यह है कि उनका एक तो भोग और संग्रह अनर्गल हो गया। दूसरे धार्मिक शिक्षण संस्थान जिस आशासे खोले गये थे उससे निकले हए विद्वानोंने अपना कर्तव्य निष्ठासे नहीं निभाया है। इसीलिये ये धर्मके विषयमें समाजको प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। इसके अलावा-सामाजिक बन्धन जो समाजके हितमें थे वे भी वर्तमान उच्छखल वातावरणसे टूट गये। फलतः जो बुरायहाँ फैली उनपर अब नियन्त्रण नहीं रहा। आजकलकी शिक्षा भी व्यक्तिको उच्छृखल ही बना रही है।
प्रश्न-आजका ज्वलंत सामायिक प्रश्न पंजाब समस्या है, उसपर आपको क्या राय है ?
पं० जी-पंजाब समस्या या अन्य राष्ट्रीय समस्यायें राजनीतिक पार्टियोंकी देन हैं। व्यक्ति या जातियाँ स्वभावतः स्वार्थी हैं राष्ट्रीय भावनाका सभीमें अभाव है इसीलिये ऐसी समस्याओंका लगातार महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्त्वको जीवनमें उतारने वाले व्यक्ति ही हल कर सकते हैं।
प्रश्न-पण्डितजी साहब, युवा-पीढ़ीको आपका सन्देश क्या है ? पं० जी-मैं किसीको भी संदेश देने में सक्षमताका अनुभव नहीं कर रहा हैं।
पण्डितजीसे हुई इस वार्तासे विभिन्न पहलू उजागर होते हैं । मैं उनका अभिनन्दन करते हुये जीवेत् शरदः शतम्की कामना करता हूँ। आगमके पक्षधर • वैद्य पं० धर्मचन्द्र शास्त्री, इन्दौर
श्रीमान् पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीनाका नाम स्वर्णाक्षरोंमें लिखे जाने योग्य है। उन्होंने आगमका पक्ष लेकर जो लेख अथवा ग्रन्थ लिखे हैं उनसे पण्डितजीकी आगम-विज्ञता एवं निष्ठा समाजके सामने आयी है। उनका 'वीर वाणी में प्रकाशित 'आगममें कर्मबन्धके कारण' लेख कर्म बन्धपर बहत ही स्पष्ट और नया प्रकाश डालनेवाला है।
इसी प्रकार अन्य लेख भी उनकी दार्शनिक और आगमिक विद्वत्ताको प्रकट करते हैं। सोनगढ़ विचारधाराके समर्थनमें लिखी गयी "जैन तत्त्वमीमांसा"में लिखी गयी आपकी "जैन तत्त्वमीमांसाकीमीमांसा" आगम पक्षको स्पष्ट करती और उसका समर्थन करती है।
"खानिया (जयपुर) तत्त्वचर्चा"का पुस्तकका आपने 'खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा' शीर्षकसे लिखे ग्रन्थ द्वारा जो उत्तर दिया है वह पूर्णतया आगमाधारसे दिया गया सटीक एवं सप्रमाण उत्तर है।
इस तरह पण्डितजीकी विद्वत्ताका लाभ जैन समाजको जो मिला है वह स्तुत्य है । उन्हें हम अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करके अपने कर्तव्यका निर्वाह कर रहे हैं। उन्हें हमारे शत-शत नमन हैं।
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