Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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१ शुभाशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : ५५
ल्लाव
किमाश्चर्यमतः परम .पं० दयाचन्द्र साहित्याचार्य, सागर ____ वाराणसीके एक संस्कृतज्ञ विद्वान्के मुखसे व्याकरणकी क्लिष्टताके विषयमें हमने सुना है कि
कारक कठिन कण्ठ नहिं - आवे
तब समास मुगरा ले धावे । तद्धित बाप बाप चिल्लावे
हा हा कर कृदन्त थर्रावे ॥ - इतना कठिन व्याकरण विषय होने पर भी श्री पं० बंशीधरजीने व्याकरणाचार्य-सागरको अपने बुद्धिबलसे पारङ्गत किया।
सन १९४५ में श्री नाभिनन्दन दि० जैन विद्यालय, बीनामें प्रधानाध्यापक पदपर सरस्वती सेवाका शुभावसर प्राप्त किया। उस समय हमारे हृदयमें विचार आया कि यहाँपर एक व्याकरणाचार्य रहते हैं, जो वस्त्रके व्यापारी हैं। उनके सान्निध्यमें व्याकरणका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। सबसे प्रथम आपने व्याकरणका महत्त्व दर्शाते हए हमें व्याकरणके अध्ययन में उत्साहित किया। आपने व्याकरणका महत्त्व व्यक्त किया
विना व्याकरणं वाणी, रमणी रमणं विना । विवेकेन विना लक्ष्मीः , न सुखाय कदाचन ॥ १ ॥ व्याकरणेन पदे शुद्धि, पदशुद्धार्थनिर्णयः ।
निर्णयात् तत्त्वतः ज्ञानं, तत्त्वज्ञानान्तरे शिवम् ॥ २ ॥ एक वैयाकरण विद्वान् पिता अपने पुत्रसे कहता है
यद्यपि बहुनाधीषे, तथापि पठ पुत्र! व्याकरणम् ।
__ स्वजनं श्वजनं माभूत्, सकलं शकलं सकृत् शकृत् ॥ तात्पर्य-पिता अपने पुत्रसे कहता है, कि हे पुत्र । यदि तुम अन्य विषय नहीं पढ़ना चाहते हो तो मत पढ़ो, परन्तु व्याकरण विषय अवश्य पढ़ो, जिससे कि शब्दोंकी सिद्धि और उनके अर्थोंका स्पष्ट बोध हो सके। यदि तुम व्याकरणसे शब्दोंका स्पष्ट अर्थ नहीं जान सके तो स्वजन (अपने भाई) को श्वजन (कुत्ता), सकल (सब) को-शकल (खण्ड या टुकड़ा) और सकृत् (एक बार) को शकृत् (मलमूत्र) समझकर अर्थका अनर्थकर जाओगे। . व्याकरणके इन महत्त्वपूर्ण श्लोकोंको सुनकर व्याकरणके पठन-पाठनमें हमारा उत्साह अत्यन्त बृद्धिंगत हो गया। तदनन्तर हमने आपसे दैनिक-अध्ययन कर "वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी" ग्रन्थका तीन वर्षों में सम्पूर्ण पारायण कर लिया। इस महान् विद्यादानरूप उपकारके उपलक्ष्यमें हम आपके प्रति भूयः भूयः कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
"न हि कृतमपकारं साधवो विस्मरन्ति ।' स्याद्वाद महाविद्यालयमें अध्ययन समाप्त करनेके उपरान्त आपने किसी शिक्षा केन्द्रमें अध्यापन नहीं किया, अपितु निमित्तकारणोंके मिलने पर विद्वदवरने स्वतन्त्र व्यवसाय करना अपना लक्ष्य बनाया। 'अनम्यासे विषं विद्या' इति नीतिके अनुसार आत्मामें अधीत विद्याका विस्मरण हो जाना चाहिये था पर आप अनुभूत विषय-न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त और दर्शनको विस्मृत नहीं कर सके यह आश्चर्यका विषय है।
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