Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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हे सरस्वती के वरदपुत्र विद्ववर तुमको शत प्रणाम
पं० विजयकुमार जैन, श्रीमहावीरजी
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हे सरस्वती के वरद पुत्र विद्वद्वर ! तुमको शत प्रणाम । परम भक्त ! व्याकरण विज्ञ, तुमको प्रणाम ||
हे जिनवाणी के
चिन्तन सागर से मोती चुन, प्रज्ञा से उनकी चमकाया । उद्भ्रान्त जगत के आँगन में लो तुमने उनको बिखराया । जिनवाणी का नित मन्यन कर तुमने जो अमृत पाया है। तत्वार्थी जन को जो तुमने उसका आस्वाद कराया है। सत्यार्थी तुम तत्त्वार्थी तुम स्वाध्याय निरत है ख्यात नाम । विख्यात हुए विद्वद्गण में तुमको हम सबका नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र
पुरुषार्थी बन जीवन में तुमने नित नियतिवाद को ठुकराया । लख भारत माँ को पराधीन सेनानी जीवन अपनाया । लखकर कुरूढ़ियों को तुमने विद्रोही बिगुल बजाया है। शासन समाज हो स्वच्छ सदा यह गीत आपने गाया है ॥ अपने बलबूते पर चलकर तुम बने सदा ही एकनाम । अभिनव चिन्तन की सरणि पकड़ तुम बढ़े तुम्हें है नित प्रणाम ।। हे सरस्वती के वरद पुत्र
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हे ज्ञानपुञ्ज ! तुमने श्रुत के मंथन का पथ नित अपनाया । पुरुषार्थ और व्यवसाय बुद्धि लख लक्ष्मी ने भी अपनाया । हे राष्ट्रभक्त ! हे धर्मभक्त ! तुमने सुनाम यह पाया है । 'वर्णी गणेश' पथ-चिह्नों पर सुमने अपने को पाया है ॥ विद्वत्ता के हे मूर्तरूप तुमसे समाज है ख्यातनाम | हे पुरुषार्थी व्यवसायी हे ! विद्वद्वर तुमको नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र अभिनन्दनीय हे विद्वद्वर 'स्याद्वाद' तुम्हें नित है भावा । मिथ्या अभिमानी जन-मन जब एकान्त दृष्टि दूषित पाया । तब सुनयवाद का दीपक ले उनको सन्मार्ग दिखाया है । जिन आगम का हाँ सही मर्म तुमने उनको बतलाया है ॥ हे तत्त्वसमीक्षक चिन्तक हे तुम निज जीवन में हो अकाम । हे सत्य तस्व के नवदृष्टा तुमको समाज का नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र हे विज्ञ, जिओ तुम युगयुग तक जो सत्पथ तुमने अपनाया । उस पर बढ़कर निज जीवन का तुमने रहस्य है जो पाया। वह शान्ति क्रान्ति का रूप आज जनजन के मन को भाया है । हे सौम्य, आपने अपने को उससे विमुक्त कब पाया है ? तुमसे सुविज्ञ को पाकर के है धन्य आज यह धराधाम । अभिनन्दन रत जन-जन का मन तुमको करता है नित प्रणाम || हे सरस्वती के वरद पुत्र
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