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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(३३) और कमलकी डंडियोंके वलय अर्थात् कंकनोंसे संयुक्त और खिलेहुये कमलकी समान प्रकशित स्त्रिये, ये सब स्वस्थमनुष्यकी ग्लांनिको हरती हैं जैसे संचरित हुई कमलिनी ।। ४१॥
आदानग्लानवपुषामग्निः सन्नोऽपि सीदति ॥
वर्षासु दोषैर्दुष्यन्ति तेऽम्बुलम्बाम्बुदेम्बरे ॥४२॥ सूर्यके द्वारा रस और बलका ग्रहण किया जाता है तिसकरके ग्लानिको प्राप्त हुये शरीरवाले मनुष्योंका मंद हुआ अग्निवर्षाऋतुमें दुष्टहुये दोषों करके हानिको प्राप्त होताहै और वे दोष जलवाले मेघोंकरके आच्छादित आकाशहोवे तब दुष्टताको प्राप्त होतेहे ॥ ४२ ॥
सतुषारेण मरुता सहसा शीतलेन च ॥
भूबाष्पेणाम्लपाकेन मलिनेन च वारिणा ॥४३॥ जलके कणकोसहित वायुकरके और ग्रीष्मऋतुके संतापके अनंतर वेग करके शीतलपनेसे आभ्यंतर हुआ वायु दूषित होजाता है और पृथिवीकी भाँफोंकी गरमाई करके खट्टे पाकवाले पानीके होजानेसे पित्त दूषित होताहै और मलिनरूप पानी करके ॥ ४३ ॥
वह्निनैव च मन्देन तेष्वित्यन्योन्यदूषिषु॥
भजेत्साधारणं सर्वमूष्मणस्तेजनं च यत् ॥४४॥ __ और मंदरूप अग्निकरके कफ दूषित होताहै, ऐसे इस वर्षाकालमें तीनोंदोष एकहीबार दूषित होजातेहैं अर्थात आपसमें दोषवाले होजातेहैं. इसवास्ते गरमाईको तीक्ष्ण करनेवाले साधारण व्य को सेवै ॥ ४ ४ ॥
आस्थापनं शुद्धतनुर्जीर्णं धान्यं रसान्कृतान् ॥
जागलं पिशितं यूषान्मध्वरिष्टं चिरन्तनम् ॥ ४५॥ विरेचन आदिकरके शुद्धशरीरवाला मनुष्य निरूहबस्तीको सेवै, और पुराणा अन्न स्नेह आर सूंठ आदिकरके किये रसः-जांगलदेशका मांस-यूष-शहद-पुरातन मदिरा ॥ ४५ ॥
मस्तु सौवर्चलाढ्यं वा पञ्चकोलावचूर्णितम् ॥
दिव्यं कौपं शृतं चाम्भो भोजनं त्वतिदुर्दिने ॥४६॥ कालानमककरके संयुक्त, अथवा पीपल-पीपलामूल-चव्य-चीता-सूटके-चूर्णकरके संयुक्त दहीका पानी, और आकाशमें होनेवाला और कूपमें होनेवाला और पकाया जल ये सब वातवर्क आदिकरके आच्छादित दिनमें सेवने योग्यहैं ॥ ४६॥
व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु ॥ अपादचारी सुरभिः सततं धूपिताम्बरः॥४७॥
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