________________
अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
पद्धति में कुछ अन्तर पाया जाता है। अहिंसादि पाँच अणुव्रत, दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत और सामायिकादि चार शिक्षाव्रत, इन बारह व्रतों का आचरण और मरणान्त में सल्लेखना, यह एक पद्धति है। दूसरी पद्धति के अनुसार श्रावक के अष्ट मूलगुण हैं। इन आठ मूलगुणों के विषय में भी आचार्यों में मतभेद पाया जाता है। समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में गृहस्थ के आठ मूलगुण बताए हैं। इन आठ मूलगुणों के अन्तर्गत अहिंसादि पांच अणुव्रतों का पालन एवं मद्य, मांस और मधु (शहद) इन तीन मकारों का त्याग आता है। वे कहते हैं
मद्य-मांस मधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्ग्रहिणां श्रमणोत्तमाः॥ आचार्य जयसेन ने अष्टमूलगुणों में पाँच अणुव्रतों के साथ मद्य एवं मांस को स्वीकार करते हुए मधु के स्थान पर द्यूत (जुआ) के त्याग का उपदेश दिया है। कुछ आचार्यों ने (शिवकोटि, जयसेन, अमृतचन्द्र, सोमदेव, रइधू आदि ने) पाँच उदम्बर (बड़, पीपल, गूलर, कठूमर, ऊमर) फलों के त्याग के साथ मद्य, मांस एवं मधु के त्याग को श्रावक के अष्ट मूलगुण बताया है। पं. आशाधार ने तो मद्य, मांस, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पाँच उदम्बर एवं बहुजीवी फल त्याग, नियमित देवदर्शन, जीवदया एवं जलगालन, ये आठ मूलगुण गिनाए हैं।
पण्डितप्रवर आशाधर ने श्रावक या श्राविका धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि दोष रहित सम्यक्त्व, अतिचार (दोष) रहित अहिंसादि पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों (दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत) और चार शिक्षाव्रतों (सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाणव्रत) तथा मरते समय विधिपूर्वक सल्लेखना व्रत ग्रहण, यह सब सागार या श्रावक धर्म कहलाता है
सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते।
सल्लेखना च विधिना पूर्णसागारधर्मोऽयम्॥ श्रद्धा, विवेक और शुद्ध आचरण पूर्वक उपर्युक्त व्रतों (नियमों) का पालन करना तथा अहिंसादि महाव्रतों आदि को धारण करने की भावना (वह घड़ी कब पाऊँ मुनिव्रत धर वन को जाऊँ) भाते रहना और उसके अनुसार प्रयत्नशील रहना, श्रावकाचार है। इस प्रकार श्रावकाचार मुनि योग्य महाव्रतों को धारण करने का आधार है।
यहाँ पर अनर्थदण्डवत नामक गुणव्रत एवं अतिथिसंविभाग नामक शिक्षाव्रत के विशेष संदर्भ में श्रावकाचार की चर्चा की जा रही है। अनर्थदण्डविरति
श्रावक के बारह व्रतों के अन्तर्गत तीन गुणव्रत हैं। ये गुणव्रत इसलिए कहलाते हैं कि इनके द्वारा पांच अणुव्रतों में गुणात्मक वृद्धि होती है। इन तीन में भी अनर्थदण्ड एक ऐसा पापात्मक प्रबल कारण है, जिसके त्याग को शास्त्रकारों ने बारहव्रतों का मूल तक कह दिया है। बात यह है कि हमारे दैनन्दिन कार्यों में अधिकतम प्रवृत्तियाँ निष्प्रयोजनीय होती हैं। यदि