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अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011
उनकी उपयोगिता एवं महत्ता स्पष्ट की जाये।
आचार या चारित्र का अर्थ है आचरण। गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जाने वाला आचरण या व्यवहार श्रावकाचार कहलाता है। इस प्रकार व्यक्ति का सोचना, बोलना और करना, उसका आचार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के द्वारा मन, वचन और शरीर का उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ प्रयोग ही मनुष्य को स्वयं सुखी-दु:खी करता है और दूसरों को सुखी-दु:खी करता है। __वस्तुतः विश्व में दो विचारधाराएँ प्रायः प्रारंभ से प्रचलित रही हैं और आज भी प्रचलित हैं। एक है भौतिक, भोगवादी या प्रवृत्तिपरक धारा और दूसरी धारा है त्यागपरक, आध्यात्मिक अथवा निवृत्तिपरक। पहली भौतिकधारा भोगप्रधान है, इसका लक्ष्य या प्रयोजन असीम और अनन्त भोग हैं। दर्शन की भाषा में इसे चार्वाकी धारा कहा जा सकता है। उसका उद्घोष है- खाओ, पीओ और मौज करो। इस धारा का आदर्श है
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। प्रायः संपूर्ण विश्व इस विचारधारा से ग्रस्त है। दूसरी धारा त्यागमयी या निवृत्तिपरक है। इस धारा का उद्देश्य अनन्त एवं असीम भोगों को भोगना और भोगने की इच्छा नहीं, अपितु उन अनन्त एवं असीम भोगों को त्यागना और परिमाण में भोगना है। इस निवृत्तिपरक धारा का प्रतिनिधित्व निर्ग्रन्थ या जैनपरंपरा करती है। निर्ग्रन्थ परंपरा में मान्य गृहस्थ श्रावक उक्त दोनों परंपराओं के बीच की स्थिति में होता है। यह श्रावक भोगों का पूर्णतः त्यागी न होकर उनकी मर्यादाएँ तय करता है, परिमाण निश्चित करता है। इन्हीं भावनाओं के अन्तर्गत उसके अहिंसादि बारह व्रत, अष्टमूलगुण, षडावश्यक आदि आते हैं।
श्रावक या श्राविका शब्द का सामान्य अर्थ है सुनने वाला या सुनने वाली। वह आचार्य आदि परमेष्ठी गुरुओं से धार्मिक उपदेश को सुनता या सुनती है। तीर्थकर रूप परमगुरु की समवशरण सभा में भी यही गृहस्थ मनुष्य धर्मोपदेश का श्रोता होता है। इसीलिए श्रावक की परिभाषा करते हुए कहा गया है- श्रृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावकः। इस प्रकार श्रावक शब्द का अर्थ सामान्य गृहस्थ से उत्कृष्ट और अर्थगंभीर वाला है। अन्यत्र भी श्रावक की यही परिभाषा की गई है
श्रृणोति धर्मतत्त्वं यः परान् श्रावयति श्रुतम्।
श्रद्धावान् जैनधर्मे सः सक्रियश्रावको बुधः॥ अर्थात् जो व्यक्ति धर्मतत्त्व को सुनता है और सुने हुए धर्मतत्त्व को दूसरों को सुनाता है तथा जिनधर्म या जैनधर्म में आस्था रखने वाला है, वह सक्रियाओं से युक्त समझदार श्रावक कहलाता है। श्रावं श्रावं करोतीति श्रावकः इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो बार-बार सुनता है, वह भी श्रावक कहलाता है। __जैन परंपरा में श्रावक-श्राविकाओं के आचार संबद्ध अनेक परंपराओं या पद्धतियों का विकास हुआ है। इस सब विषय को देखकर पता चलता है कि विवक्षा भेद से अथवा उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के कारण जैन आचार्यों एवं लेखकों की विवेचन